100 rupya hazar sapne foothpath se Empire tak ka safar

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ज़िंदगी हमेशा आसान नहीं होती। कभी यह गले लगाती है तो कभी ऐसा थप्पड़ मारती है कि इंसान संभलते-संभलते टूट जाता है। राहुल की कहानी भी ऐसे ही थप्पड़ों और आँसुओं से शुरू होती है। बचपन से ही उसने गरीबी को बहुत करीब से देखा था। घर की हालत इतनी खराब थी कि कभी खाने को पूरा अनाज नहीं मिलता, तो कभी स्कूल की किताबें आधी-अधूरी रह जातीं।

पिता की अचानक मृत्यु ने उसके जीवन की सारी मासूमियत छीन ली। महज़ बीस साल की उम्र में ही उसे अपने छोटे भाई-बहनों और बूढ़ी माँ की ज़िम्मेदारी उठानी पड़ी। गाँव में रहकर काम ढूँढना नामुमकिन था, इसलिए राहुल ने शहर का रुख किया। लेकिन शहर का सच उसके सपनों से कहीं ज्यादा बेरहम था। जेब में सिर्फ़ पचास रुपये और आँखों में उम्मीदों का समंदर लिए वह महानगर पहुँचा, लेकिन तीन दिन तक भूखा-प्यासा फुटपाथ पर सोना पड़ा।

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नौकरी की तलाश में हर दरवाज़ा खटखटाया, लेकिन हर जगह से निराशा ही हाथ लगी। कहीं कहा गया – “अनुभव नहीं है”, तो कहीं चेहरा देखकर हंसी उड़ाई गई। आखिरकार एक छोटे से होटल में बर्तन माँजने की नौकरी मिली। सुबह पाँच बजे से रात ग्यारह बजे तक खटना और महीने के अंत में सिर्फ़ दो हज़ार रुपये मिलना… यही उसकी हकीकत बन गया।

उसमें से भी वह ज्यादातर हिस्सा गाँव भेज देता, ताकि घर का चूल्हा जलता रहे। खुद कभी एक वक्त का खाना खाकर, कभी पानी पीकर पेट भरता।लेकिन किस्मत ने यहां भी साथ नहीं दिया। एक दिन होटल मालिक ने बिना वजह नौकरी से निकाल दिया। उस रात राहुल पार्क की बेंच पर बैठकर फूट-फूटकर रोया, मगर सुबह होते ही उसने आँसू पोंछे और खुद से वादा किया – “अब मैं हार नहीं मानूँगा, चाहे दुनिया मुझे कितनी बार गिरा दे।”

100 rupya hazar sapne 100 रुपये का पहला निवेश

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जब जेब में आखिरी सौ रुपये बचे थे, तब राहुल ने सोचा – “नौकरी अगर मुझे नहीं अपनाती, तो क्यों न मैं खुद कुछ शुरू करूँ?” उस सौ रुपये से उसने आलू और मसाले खरीदे, कुछ बर्तन उधार लिए और अपने हाथों से समोसे बनाए। यही था उसका पहला निवेश, उसका पहला सपना। फुटपाथ पर बैठकर जब उसने बेचने की शुरुआत की, तो पहले दिन सिर्फ़ बारह रुपये की कमाई हुई।

कोई और होता तो शायद हार मान लेता, लेकिन राहुल के लिए यह छोटी सी कमाई भी उम्मीद की पहली किरण थी। उसने अपनी पूरी ताकत इस छोटे से काम में झोंक दी। सुबह तीन बजे उठकर समोसे तलता, दिन भर ग्राहकों से मुस्कराकर बातें करता और रात को अगले दिन की तैयारी करता। धीरे-धीरे लोग उसकी ईमानदारी और लगन से आकर्षित होने लगे। उसके समोसे का स्वाद और चाय की खुशबू इलाके में मशहूर हो गई।

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छह महीने की लगातार मेहनत के बाद उसने एक छोटा सा ठेला खरीद लिया। अब वह सिर्फ़ समोसे ही नहीं, बल्कि चाय, पकौड़े और नमकीन भी बेचने लगा। लेकिन संघर्ष अभी खत्म नहीं हुआ था। एक दिन मुन्ना भाई नाम का स्थानीय गुंडा आया और उसका ठेला उलटकर सब सामान बर्बाद कर दिया। उस दिन राहुल टूट गया था, फुटपाथ पर बैठकर उसने घंटों रोया।

मगर जब सूरज निकला तो वह फिर से खड़ा हो गया। उसने ठेला दोबारा खरीदा, और इस बार पहले से ज्यादा मेहनत की। हर चाय के प्याले और हर समोसे में वह अपना खून-पसीना मिलाता। उसका विश्वास था – “सपनों की ताक़त को कोई गुंडा नहीं कुचल सकता।” यही यकीन उसे फिर से ग्राहकों का चहेता बना गया।

संघर्षों से अवसर तक टर्निंग प्वाइंट की कहानी

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राहुल की मेहनत रंग लाने लगी। उसके ठेले के आगे लंबी कतारें लगने लगीं। लोग कहते – “राहुल की चाय में सिर्फ़ दूध-चीनी नहीं, बल्कि मेहनत और सच्चाई भी घुली होती है।” एक दिन किस्मत ने उसका दरवाज़ा खटखटाया। एक बड़े बिज़नेसमैन, जो रोज़ उसके ठेले से चाय पीते थे, ने उसकी लगन देखकर कहा – “राहुल, क्यों न तुम मेरे ऑफिस के बाहर दुकान खोल लो? तुम्हें ज्यादा ग्राहक मिलेंगे।

यह ऑफ़र राहुल के लिए सपना सच होने जैसा था।उसने बिना देर किए हामी भर दी। अब उसकी कमाई तीन गुना बढ़ गई। लेकिन हर नई शुरुआत नए दुश्मन भी लाती है। वहाँ पहले से मौजूद वेंडर्स ने उसे परेशान करना शुरू कर दिया। कभी उसका सामान चोरी हो जाता, कभी धमकियाँ मिलतीं। मगर राहुल ने डरने के बजाय और मेहनत करने का रास्ता चुना। उसने ग्राहकों के लिए नए-नए स्नैक्स बनाने शुरू किए।

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ऑफिस के कर्मचारी उसके मुरीद बन गए। लोग कहते – “राहुल का खाना सिर्फ़ पेट नहीं भरता, दिल भी जीत लेता है।धीरे-धीरे उसकी पहचान इतनी मजबूत हो गई कि वह किराए पर एक छोटी सी दुकान लेने में सक्षम हो गया। उसने “स्वाद संगम” नाम से अपना पहला रेस्तराँ खोला और दो लड़कों को नौकरी पर रखा। अब वह सिर्फ़ चाय-नाश्ता ही नहीं, बल्कि पूरा लंच और डिनर भी बेचने लगा।

स्वाद संगम” लोगों का पसंदीदा ठिकाना बन गया। वहाँ सिर्फ़ खाने का स्वाद ही नहीं, बल्कि राहुल की संघर्षों भरी मुस्कान भी ग्राहकों को बार-बार खींच लाती। यह वही मोड़ था जहाँ राहुल ठेले वाले से रेस्तराँ मालिक बन गया – एक नया सफर शुरू हो चुका था।

फुटपाथ से Empire तक प्रेरणा की इबारत

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आज राहुल “स्वाद संगम” नाम की तीन सफल शाखाएँ चला रहा है। उसके यहाँ पचास से ज्यादा लोग काम करते हैं। गाँव में उसने एक स्कूल बनवाया है ताकि कोई बच्चा उसकी तरह मजबूर न हो। उसने अपने भाई-बहनों को पढ़ाया और माँ के चेहरे पर वो सुकून लौटाया जो बरसों से सिर्फ़ ख्वाब था। मगर सबसे बड़ी बात यह है कि राहुल आज भी सुबह चार बजे उठकर अपने पहले रेस्तराँ में जाता है और सारा काम खुद देखता है।

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उसका कहना है – “मेहनत करने की आदत मुझे मेरे पुराने दिनों की याद दिलाती है और मुझे ज़मीन से जोड़े रखती है।” उसकी जेब में आज भी वही पुराना सिक्का है, जिससे उसने पहला समोसा खरीदा था। जब कोई युवा उससे पूछता है कि सफलता का राज़ क्या है, तो वह वही सिक्का दिखाकर कहता है – “बेटा, यह सिक्का बताता है कि शुरुआत चाहे कितनी भी छोटी क्यों न हो, सपने हमेशा बड़े होने चाहिए।

हिम्मत मत हारो, क्योंकि फुटपाथ से Empire तक का सफ़र भी मुमकिन है।” राहुल की कहानी सिर्फ़ एक उद्यमी की नहीं, बल्कि उस उम्मीद की है जो हर गरीब बच्चे के दिल में छिपी होती है। उसकी ज़िंदगी हमें सिखाती है कि हालात चाहे कितने भी सख्त क्यों न हों, अगर इरादे मजबूत हों और मेहनत सच्ची हो तो दुनिया की कोई ताकत इंसान को उसकी मंज़िल से नहीं रोक सकती।

यही है सौ रुपये और हजार सपनों का असली सफ़र – एक ऐसा सफर जो आँसुओं से शुरू होकर हज़ारों मुस्कानों तक पहुँचा, और जिसने यह साबित कर दिया कि इंसान की असली पूँजी उसकी हिम्मत होती है।

बेटी

कंजूस आदमी

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