43 gayab hote logon ki kahani Part 5 बंद दरवाज़े के पीछे
आरिफ़ की निगाहें उस मोमजदा चेहरे पर अटक गई थीं। उस चेहरे की पलकें हल्के-हल्के काँप रही थीं — जैसे सदियों से बंद कोई खिड़की पहली बार हवा से सरसराई हो। उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे वो पुतली उसे देख रही हो… नीली, ठंडी, मगर ज़िंदा। कमरा एक अजीब-सी खामोशी में डूब गया था, जिसमें हर आवाज़ जैसे फुसफुसाहट बनकर दिल के अंदर उतर रही थी। तभी दीवार की तरफ़ से हल्की सी दस्तक हुई — बहुत धीमी, लेकिन बेहद असरदार।
आरिफ़ के जिस्म में एक झुरझुरी दौड़ गई। ये कोई मामूली खटखटाहट नहीं थी — इसमें जैसे किसी भूले हुए वजूद की पुकार थी। उसे सहसा अपनी डायरी की वो पंक्ति याद आ गई — “वो दरवाज़ा जो कभी खुला नहीं…”।
उसने चारों ओर नज़रें दौड़ाईं। कमरे की पिछली दीवार पर एक कोना था जहाँ की ईंटें बाक़ी दीवार से ज़रा अलग नज़र आ रही थीं — रंग हल्का सा फीका, जैसे वक़्त भी उस जगह से डरता रहा हो। आरिफ़ झुका, उँगलियों से ईंटों को टटोलने लगा। तभी उसकी उँगली एक बाहर निकली हुई ईंट पर रुकी — अनजाने में जैसे उसका इंतज़ार हो रहा हो। उसने हल्के से दबाया… और फिर…
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एक भारी, खुरदुरी आवाज़ के साथ दीवार धीरे-धीरे पीछे सरकने लगी। धूल की महीन परतों के बीच, एक दरवाज़ा उभरने लगा — लोहे का, जंग लगा हुआ, लेकिन अब भी मज़बूत।आरिफ़ की साँसें अटक गईं। ये वही दरवाज़ा था… वही जिसके बारे में अब तक लोग सिर्फ़ कानाफूसी करते थे — कि कभी खुला नहीं, और जिसे खोलने वाला कभी लौट कर नहीं आया।
दरवाज़े के उस पार अंधेरा था — गाढ़ा, स्याह और जीवित। मगर उस अंधेरे में उसे जैसे किसी की निगाह महसूस हुई — कोई था वहाँ… कोई जो उसका इंतज़ार कर रहा था।आरिफ़ ने एक आख़िरी बार पीछे देखा। फिर लाइटर जलाया… और उस दरवाज़े के भीतर क़दम रख दिया — जहाँ शायद वो सच था, जिसे लोग अब तक अफ़वाह समझते रहे थे।
43 गायब होते लोगों की कहानी पार्ट 5 वह दरवाज़ा जो कभी खुला नहीं था
आरिफ़ की उंगलियाँ काँप रही थीं, लेकिन उसके इरादों में अब भी वो सख़्ती थी जो किसी हद तक जाने वाले इंसान में होती है। जिस ईंट को उसने दबाया था, उसके पीछे से आती घिसटती हुई आवाज़, जैसे किसी भूले हुए रहस्य की सांसें हों, धीरे-धीरे कमरे की दीवार को पीछे खिसकाती जा रही थी। दीवार अब पूरी तरह से हट चुकी थी, और उसके पीछे जो दिखा, वो महज़ एक और कमरा नहीं था — वो एक और दुनिया थी।
कमरे के अंदर एक अजीब सी सीलन थी, जैसे सदियों से कोई वहाँ साँस लेता आ रहा हो। फर्श पर बिखरी धूल और टूटे काँच के टुकड़े किसी भयानक हादसे की कहानी कह रहे थे। दीवारों पर अब भी अधजले पोस्टर चिपके थे — कुछ सरकारी आदेश, कुछ गुमशुदा लोगों की तस्वीरें, और कुछ अजीब से प्रतीक जिनका मतलब आरिफ़ नहीं समझ सका। उन प्रतीकों को देखकर उसका सिर हल्का सा चकराया — जैसे वो किसी ऐसे भाषा में लिखे हों जो सीधे ज़हन को निशाना बनाती है।
कमरे के बीचोंबीच एक पुराना मेज़ रखा था — उस पर फैले हुए काग़ज़ों में नमी थी, लेकिन कुछ नाम अब भी पढ़े जा सकते थे।फ़ैज़ल उस्मानी, सलीमा क़य्यूम, ज़ैद इरशाद…
आरिफ़ की आँखें फटी रह गईं। ये वही नाम थे जिन्हें वो ‘गायब’ लोगों की फ़ाइलों में पढ़ चुका था, लेकिन किसी ने कभी ये नहीं बताया था कि ये सारे नाम एक ही जगह किसी रजिस्टर में दर्ज थे।
उसी पल कमरे के कोने में कुछ हिला। आरिफ़ ने टॉर्च उस तरफ़ घुमाई। वहाँ एक अधखुला दरवाज़ा था — लकड़ी का, काला और मोटा, जिस पर जंग खाई लोहे की पट्टियाँ जड़ी थीं। दरवाज़े पर उँगलियों से खरोंचने के निशान थे — जैसे किसी ने उसे भीतर से खोलने की कोशिश की हो। उस खरोंच के बीच एक नाम उभरा हुआ था — “नासिर।”
आरिफ़ को याद आया — नासिर वही लड़का था जिसकी माँ हर हफ़्ते थाने जाकर एक ही बात दोहराती थी: “वो दरवाज़ा खोलिए… मेरा बेटा वहाँ है…”
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आरिफ़ ने काँपते हाथों से दरवाज़े की कुंडी को छुआ। दरवाज़ा अजीब ढंग से गरम था — जैसे उसके पीछे कोई अभी भी साँस ले रहा हो। एक पल को आरिफ़ का दिल धड़कना भूल गया, लेकिन वो पीछे नहीं हटा। उसने कुंडी घुमाई… दरवाज़ा चरमराया… और एक अंधेरी सुरंग की तरह खुल गया।
भीतर से आती हवा में ज़ंग, सीलन और कुछ और अजीब सा मिला था — जैसे कोई पुराना ज़ख़्म फिर से खुला हो। वहाँ अंधेरा था, लेकिन उस अंधेरे में एक आवाज़ थी — धीमी, सिसकती हुई, जैसे कोई बहुत अंदर से कह रहा हो: “बाहर निकालो मुझे…”
आरिफ़ ने एक आख़िरी बार पीछे देखा। अब लौटना मुमकिन नहीं था। जो दरवाज़ा कभी खुला नहीं… आज वो उसकी आँखों के सामने था, और उस दरवाज़े के पीछे शायद 43 से कहीं ज़्यादा लोगों की चीख़ें अब भी कैद थीं।
उस सुरंग में जो मिला… वो इंसान नहीं था
सुरंग में कदम रखते ही आरिफ़ को ऐसा लगा जैसे उसने वक़्त की किसी पुरानी, भूली हुई नस को छेड़ दिया हो। दीवारें साँस ले रही थीं — सचमुच साँस जैसी आवाज़ें आ रही थीं, हर कुछ कदम पर दीवार से धड़कन जैसी धुंधली धुन टकराती थी। वहाँ अँधेरा था, लेकिन एक औरत की सिसकी जैसी धीमी ध्वनि सुरंग के भीतर गूंज रही थी। उसकी टॉर्च की रोशनी सिर्फ़ कुछ ही फ़ीट तक जा पा रही थी — और उस रोशनी के पार कुछ ऐसा था जो अंधेरे में भी अपनी मौजूदगी का एहसास करा रहा था।
हर कदम पर ज़मीन जैसे पिघली हुई लगती — कीचड़, ख़ून या कुछ और… पहचानना मुश्किल था। एक जगह दीवार पर कोई नाखूनों से खरोंच कर लिखा गया था:”हमने इसे इंसान समझा था…”
आरिफ़ का गला सूखने लगा। उस वाक्य में ऐसा कुछ था जो इंसान को भीतर तक तोड़ दे।वो आगे बढ़ा तो सुरंग में एक छोटी सी खुली जगह आई — एक तरह का तहख़ाना। वहाँ एक पुराना स्टील का स्ट्रेचर पड़ा था, और उसके बगल में कुछ कपड़े… बच्चों के कपड़े। कुछ लाल धब्बे उन पर अब भी ताज़ा लग रहे थे।
तभी अचानक उसकी टॉर्च एक कोने में जाकर ठिठक गई — एक परछाईं।आरिफ़ के पैरों की हरकत रुक गई।परछाईं… हिली।वो चीज़ दीवार से लगी बैठी थी — एक अजीब आकृति, आधा इंसानी… आधा कुछ और। उसकी पीठ मुड़ी हुई थी, जैसे कई सालों से झुकी हो, उसकी त्वचा पतली और फीकी थी, जैसे किसी लाश को नमक में रखा गया हो। लेकिन सबसे डरावनी बात थी — उसकी आँखें।
वो नीली थीं। एकदम वैसी ही… जैसी नीला की थीं।वो आकृति अचानक धीरे-धीरे घुटनों के बल उठी। उसने कोई आवाज़ नहीं निकाली, लेकिन उसकी साँसों की धड़कन अब पूरे तहख़ाने में गूंज रही थी। फिर उसने सिर उठाया, और सीधा आरिफ़ की तरफ देखा।
आरिफ़ के होंठों से हल्की सी फुसफुसाहट निकली:“तुम… इंसान हो?”उसने जवाब नहीं दिया, सिर्फ़ इतना किया — अपने सीने की तरफ़ इशारा किया… वहाँ जहाँ एक बड़ा सुराख था, और उसमें एक ताले की आकृति बनी हुई थी।
आरिफ़ कुछ समझ नहीं पाया। लेकिन तभी उस आकृति ने थरथराते हुए अपने पीछे की दीवार पर हाथ फेरा। दीवार पर 43 निशान बने थे — हर निशान के नीचे एक नाम खुदा हुआ था…”फ़ैज़ल, सलीमा, नासिर…”…और 44वाँ निशान खाली था।आरिफ़ की साँस रुक गई। वो जान गया था — अबअगला नाम उसी का लिखा जाना था।
दरवाज़ा बंद होने से पहले
आरिफ़ की रगों में लहू नहीं, जैसे बर्फ़ दौड़ गई थी। दीवार पर 44वां खाली निशान अब किसी गहरी योजना की तरह उसे घूर रहा था — ऐसा जैसे किसी ने पहले ही तय कर रखा हो कि अगली गुमशुदगी उसी की होगी। वह आकृति अब भी उसकी ओर देख रही थी, और उसकी साँसें धीमी लेकिन भारी होती जा रही थीं, जैसे हर पल कोई असहनीय भार उस पर और इस जगह पर टिका हुआ था।
“क…कौन हो तुम?” आरिफ़ ने साहस जुटाकर पूछा।आकृति हिली नहीं, बस धीरे-धीरे अपने उंगलियों से ज़मीन पर एक आकृति बनाने लगी — एक वृत्त, जिसमें तीन रेखाएँ केंद्र से बाहर की ओर जाती थीं। वही प्रतीक जो आरिफ़ ने ऊपर कमरे की दीवारों पर देखा था। अब वो समझ रहा था कि ये सिर्फ़ कोई रहस्यमय चिन्ह नहीं था… ये एक संकेत था, एक सिस्टम — जिसमें लोग गुम नहीं होते, चुने जाते हैं।
तभी पीछे से हवा में अचानक सरसराहट हुई — जैसे कोई दरवाज़ा बंद हो रहा हो। आरिफ़ ने तुरंत पलटकर देखा… वही सुरंग का दरवाज़ा, जिससे वह अंदर आया था, अब धीरे-धीरे अपने आप बंद हो रहा था। वह भागा — काँपते हाथों से दरवाज़े को थामने की कोशिश की — लेकिन दरवाज़ा अब भीतर से खिंचता जा रहा था, जैसे किसी ने उस पर क़ब्ज़ा कर लिया हो।
“नहीं!” आरिफ़ चिल्लाया, मगर आवाज़ दीवारों में समा गई — और दरवाज़ा एक आख़िरी कराह के साथ बंद हो गया।अंधेरा और गाढ़ा हो गया था। अब उसके पास सिर्फ़ टॉर्च की मद्धम रौशनी थी — और वो अजीब आकृति, जो अब धीरे-धीरे अपने जगह से उठने लगी थी। उसके पैर ज़मीन से छूते नहीं थे, बल्कि जैसे हवा में घिसटते हुए आगे बढ़ते थे।
आरिफ़ दीवार के पास सिमट गया। उसका हाथ अब भी जेब में रखे मोबाइल की ओर गया, लेकिन वहाँ कोई नेटवर्क नहीं था। उसने हिम्मत करके मोबाइल की फ्लैशलाइट जलाई और सामने देखा — आकृति अब एकदम पास थी। और तब उसने पहली बार वो शब्द सुने, जो आरिफ़ कभी नहीं भूल सकता था।“मैं था पहला… पर आख़िरी नहीं…”
आरिफ़ की आँखें चौंधिया गईं। आकृति ने अपने सीने के उस ताले को छुआ, और एक तेज़ झिलमिलाहट के साथ पूरा कमरा हिल गया — जैसे कहीं नीचे ज़मीन फट रही हो।और फिर दीवारें बोलने लगीं। सचमुच, दीवारों से आवाज़ें आने लगीं — सैकड़ों, शायद हज़ारों लोगों की, सबकी आवाज़ें अलग-अलग, मगर एक जैसे दुख और सिसकी में गूँजती हुई:
“हमें बाहर निकालो… हमें याद करो… वरना अगला तुम्हीं होगे…”आरिफ़ ने ज़ोर से आँखें बंद कर लीं। उसके भीतर अब डर से ज़्यादा एक सवाल था:
“अगर मैं बच भी गया… तो क्या इस सच्चाई को कोई मानेगा?”पर सवाल से पहले जवाब आ गया था।तहख़ाने के कोने से एक और दरवाज़ा धीरे-धीरे खुल रहा था — लेकिन इस बार वो लकड़ी का नहीं था… लोहे का था, और उसके ऊपर लिखा था: “वापसी नहीं होगी।”
लोहे का दरवाज़ा,और जो उसके उस पार था
लोहे का दरवाज़ा धीरे-धीरे खुल रहा था, लेकिन उसमें कोई चरमराहट नहीं थी — जैसे वो इस पल का इंतज़ार कर रहा हो… सालों से। उसकी पट्टियाँ, जिन पर जंग अब ज़िंदगी का हिस्सा बन चुकी थी, एक अजीब नीली रौशनी से चमकने लगीं। और उस दरवाज़े के ऊपर जो लिखा था — “वापसी नहीं होगी” — अब आरिफ़ के ज़हन में धुँधली आवाज़ बनकर गूंज रहा था।
“तू अब उसी जगह पहुँच गया है,” पीछे से वो आकृति बुदबुदाई, “जहाँ हर ग़ायब हुए इंसान को आख़िरकार लाया गया… और मिटा दिया गया।”
आरिफ़ का क़दम थरथरा गया, लेकिन जिज्ञासा — या शायद भीतर से उठती एक ज़िद — उसे पीछे नहीं हटने दे रही थी। उसने दरवाज़े को पूरी तरह खोला, और एक ज़ोर की सर्द हवा उसके चेहरे से टकराई। सामने अँधेरा नहीं था… वहाँ रोशनी थी — मगर ऐसी रोशनी जो आँखों को चुभती थी, जैसे सच्चाई खुद जलती हुई सामने खड़ी हो।
वो एक विशाल कमरा था — लेकिन ये कमरा किसी इमारत का हिस्सा नहीं लगता था। छत इतनी ऊँची थी कि दिखाई नहीं देती, और ज़मीन पर ना कोई धूल, ना गंदगी… बस एक अजीब सी सफ़ाई, जो अस्वाभाविक लगती थी। दीवारों पर स्क्रीन लगे थे — हर स्क्रीन पर एक चेहरा। वो चेहरे… जो गायब हुए थे।
सलीमा। फ़ैज़ल। नासिर।और… नीला।आरिफ़ की साँस रुक गई। नीला की आँखें उसे स्क्रीन से घूर रही थीं — जैसे वो जानती हो कि आरिफ़ वहाँ है।“ये क्या है?” आरिफ़ ने काँपती आवाज़ में पूछा।
एक दूसरी आवाज़ — ना पुरुष, ना स्त्री — हवा में गूंजती हुई आई, “ये वो जगह है जहाँ यादों को मिटाया जाता है, और इंसानों को ‘रिकॉर्ड’ बना दिया जाता है। हम उन्हें ग़ायब नहीं करते… हम उन्हें मौजूदगी से अलग कर देते हैं।”
आरिफ़ पीछे मुड़ा — लेकिन अब वो आकृति गायब थी। वो अकेला था। सिर्फ़ वो, और वो दीवारें जिन पर इंसानों की ज़िंदगियाँ कैद थीं।तभी ज़मीन के बीचोंबीच एक गोल प्लेटफ़ॉर्म ऊपर उठने लगा — उस पर एक कुर्सी थी, और उसके पीछे एक मशीन… कोई इंजेक्शन जैसा यंत्र, जो रीढ़ की हड्डी तक जाता था।
उसके सामने स्क्रीन पर अब उसका चेहरा था — आरिफ़ अहमद, उम्र 32, पत्रकार, लक्षित: 44वाँ नाम।“अब चुन,” वो आवाज़ फिर आई, “या तो रहो — और वही बनो जो सब बन चुके हैं। या फिर उस दरवाज़े से वापस जाने की कोशिश करो… जो अब कभी नहीं खुलेगा।”
आरिफ़ की आँखें भटकने लगीं… और तभी उसे एक कोना दिखा — एक छोटा सा वेंटिलेशन शाफ़्ट, जिस पर खून से लिखा था:“भाग… जब तक नाम नहीं खुदा।”वो समझ गया — उसे अब फ़ैसला लेना था। या तो वो इस सिस्टम का हिस्सा बन जाए… या वो सिस्टम को ही तोड़ दे।