Google Pe Naam Nahin Hai Part 2 – Hafiz Files Ka Sacha Raaz

Google Pe Naam Nahin Hai part 2

Google Pe Naam Nahin Hai – Part 2 visual representation"Political censorship and missing identity poster wall"

अदालत की दीवारों के पीछे दबी हुई चीख़

सुप्रीम कोर्ट की गरिमामयी दीवारों के भीतर उस दिन एक अजीब सी खामोशी थी। बाहर मीडिया की गहमागहमी, अंदर कानूनी शब्दों की जंग। लेकिन इस बार मामला सिर्फ़ कानून का नहीं था — यह उस सच का मुक़दमा था, जिसे सत्ता वर्षों से गला घोंटकर दबा रही थी। कोर्ट में जैसे ही इहान सिद्दीक़ी ने वो जल चुकी लाल फाइल मेज़ पर रखी, पूरा हॉल सन्न हो गया। हर नज़र उस फाइल पर थी — जैसे उसमें कोई ऐसा राज़ हो, जो पूरा देश हिला सकता था।

इहान ने जजों की आँखों में देखकर कहा, “मेरे पास शब्द नहीं, मगर सबूत हैं। मैं कोई नेता नहीं, सिर्फ़ एक पत्रकार हूँ — और ये फाइल एक लाश की आखिरी चीख़ है, जिसे अब तक कोई नहीं सुनना चाहता था।” जजों ने सिर झुकाकर इशारा किया — “पेश कीजिए।” और तभी कोर्ट रूम की स्क्रीन पर इहान ने वो फुटेज चलाया, जिसमें एक काली SUV से निकाली गई लाश को रेलवे यार्ड में फेंका जा रहा था। सबूत बोल रहे थे — और सत्ता के चेहरे बेनक़ाब हो रहे थे।

लेकिन अदालत की कार्यवाही आसान नहीं थी। सरकारी वकील ने तुरंत आपत्ति उठाई – “यह वीडियो अवैध तरीके से हासिल किया गया है, और देश की सुरक्षा से जुड़ा मामला है।” इहान मुस्कराया और बोला, “अगर इंसाफ़ पाने के लिए सच्चाई दिखाना अपराध है, तो फिर इस देश का हर पत्रकार अपराधी है।” कोर्ट में सन्नाटा था, मगर जनता की तरफ़ से मौजूद वकीलों ने भी इस केस को जनहित याचिका का रूप देने की मांग की।

इसी बीच, कोर्ट के एक पुराने कर्मचारी ने चुपके से इहान को एक नोट पकड़ा दिया – “तलघर में रजिस्ट्रार की पुरानी फाइलें देखो, हाफ़िज़ अली का नाम शायद अब भी वहां ज़िंदा हो।” इहान की नज़रें जज पर थीं, मगर ज़हन में वो नोट गूंज रहा था। अदालत एक दिन के स्थगन पर चली गई, लेकिन अब सच्चाई की ये लड़ाई काग़ज़ से निकलकर दीवारों में कैद इतिहास की तरफ़ बढ़ चुकी थी।

इस अदालत में आज सिर्फ़ कानून नहीं, इंसाफ़ की रूह भी पेश हो रही थी। और वो रूह गवाही दे रही थी — उन चीख़ों की, जो कभी दर्ज नहीं हुईं, और उन नामों की, जिन्हें कभी गूगल पर जगह नहीं मिली।

Google Pe Naam Nahin Hai part 2: लाल फाइल का दूसरा पन्ना

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रात के तीसरे पहर इहान अदालत के आदेश के बाद सीधा सुप्रीम कोर्ट के रिकॉर्ड तलघर की तरफ़ गया। ये जगह वैसी ही थी जैसी किसी गुमनाम इतिहास की हो — धूल से अटी पुरानी अलमारियाँ, जंग लगे ताले और दीवारों पर समय की गर्द। यहां वो दस्तावेज़ रखे थे जिन्हें न तो अदालतों ने ज़रूरत समझी, और न ही सरकारों ने याद रखा। रजिस्ट्रार की मदद से जब इहान ने हाफ़िज़ अली नाम की खोज शुरू की, तो शुरुआत में कुछ नहीं मिला — जैसे नाम को सिर्फ़ मिटाया ही नहीं गया हो, बल्कि उसे ‘हकीकत’ से भी बाहर कर दिया गया हो।

मगर फिर, एक पन्ना सामने आया — पीले पड़े काग़ज़, जिस पर एक सील लगी थी: “Confidential – Not to be Opened Without Permission.” दस्तावेज़ को उलटते ही इहान की धड़कन तेज़ हो गई। ये हाफ़िज़ अली के केस की पहली दर्ज रिपोर्ट थी, जो कभी कोर्ट में दाख़िल ही नहीं हुई थी। और उस रिपोर्ट के पीछे हाथ से जुड़ा एक पन्ना था — लाल फाइल का दूसरा पन्ना। वही पन्ना जिसे वीडियो में तीसरे शख्स ने फेंका था, और जिसे जलाया गया था।

इस पन्ने पर जो नाम दर्ज था, वो हाफ़िज़ अली से भी बड़ा था। ये नाम था – तारीक़ सैफ़ुद्दीन, एक पूर्व सांसद, और वर्तमान में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के बेहद करीब। दस्तावेज़ में दर्ज था कि हाफ़िज़ अली की गिरफ्तारी से एक हफ्ता पहले तारीक़ ने एक गुप्त मीटिंग की थी, जिसमें कुछ विश्वविद्यालयी छात्र नेताओं को “anti-national activity” में शामिल दिखाकर ‘निगरानी सूची’ में डाला गया था। और उनमें पहला नाम था – हाफ़िज़ अली।

इहान के हाथ कांप उठे। अब कहानी सिर्फ़ एक मरे हुए विचारक की नहीं थी — यह सत्ता के सबसे ऊंचे गलियारों तक जाती एक जड़ थी, जो धीरे-धीरे पूरे सिस्टम को खा रही थी। उसी फाइल में एक और कागज़ दबा था — तारीख़ और एक उच्च पुलिस अधिकारी के बीच का एक इंटरनल नोट: “If exposed, this will destabilize our control.”

इहान ने समझ लिया — यह फाइल नहीं, ज्वालामुखी थी। और इस पन्ने को सामने लाना मतलब था पूरे सिस्टम के चेहरे से नकाब खींच लेना। मगर वो अब रुकने के लिए नहीं बना था। उसने ये फैसला कर लिया — कल सुबह ये नाम जनता के सामने होगा। चाहे जो हो जाए।

एक अंधेरे कमरे की रिकॉर्डिंग

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सुबह की पहली रौशनी से पहले, इहान एक गुप्त मेल पर आया लिंक खोल रहा था। मेल किसी “Azra37” नाम की आईडी से आया था, और सब्जेक्ट लाइन थी: “Room 9, Basement – Watch Before You Decide.” उसके अंदर एक एन्क्रिप्टेड वीडियो फाइल थी, और साथ में सिर्फ़ एक लाइन – “इस कमरे की रौशनी कभी नहीं जलती, मगर यहां की आवाज़ें पूरे देश को जगा सकती हैं।” इहान ने ज़रा भी वक्त बर्बाद किए बिना फाइल खोली — और जो उसने देखा, वो किसी स्क्रिप्ट का हिस्सा नहीं लग रहा था, बल्कि एक नंगी हकीकत थी।

वीडियो में एक अंधेरा कमरा था – शायद किसी सरकारी इमारत का गुप्त तहखाना। कमरे में एक कुर्सी पर एक आदमी बंधा हुआ था, चेहरे पर पट्टी, और शरीर पर ज़ख्मों के निशान। कैमरा हिल रहा था, मानो छिपकर रिकॉर्ड किया गया हो। तभी एक गहरी आवाज़ गूंजती है – “नाम बोल, क्या मंशा थी तेरी?” बंधा हुआ आदमी जवाब देता है, “हाफ़िज़ अली को पढ़ाने का गुनाह है मेरा। उसने सिखाया कि डर से नहीं, सवाल से जिया जाता है।”

इसके बाद, वीडियो में एक और व्यक्ति आता है — उसकी कलाई पर वही घड़ी थी, जो इहान ने पहले वीडियो में तीसरे शख्स के हाथ पर देखी थी। इस बार वो आदमी बंधे कैदी के सामने एक लाल फाइल रखता है और कहता है — “अगर तू गवाही देगा, तो तुझे ज़िंदा नहीं छोड़ा जाएगा।” फिर वीडियो की आखिरी फ्रेम में वही कैदी — जिसे बाद में एक “हार्ट फेलियर” केस कहकर रजिस्टर किया गया — ज़ोर से चिल्लाता है, “ये फाइल सिर्फ़ मेरी नहीं, हर उस इंसान की जान है जो सच बोलना चाहता है!”

इहान समझ चुका था — ये सिर्फ़ टॉर्चर वीडियो नहीं, ये गवाही थी उस सिस्टम के ख़िलाफ़ जो इंसाफ़ को कुर्सियों की सेवा बना चुका है। ये क्लिप साबित करती थी कि हाफ़िज़ अली को मारने का फैसला अदालत या सबूतों से नहीं, बल्कि एक सोच से लिया गया था – वो सोच जो डर और दबाव के ज़रिये सच्चाई को कुचलती है।

इहान ने इस वीडियो को पब्लिश नहीं किया। नहीं इसलिए कि वो डर गया था, बल्कि इसलिए कि ये वीडियो उसके सबसे अहम दांव के लिए बचाया जाना था – जनता की अदालत। उसने अपने मन में तय किया — “अब वक्त आ गया है कि अंधेरे कमरों की आवाज़ें संसद की दीवारों से टकराएं।”

वो जो हाफ़िज़ अली से भी आगे था

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इहान जब दिल्ली के एक पुराने मुस्लिम मोहल्ले में पहुँचा, तो वहां की गलियाँ एक इतिहास की तरह उसके सामने खुलती जा रही थीं — दीवारों पर चिपके वक़्त के निशान, टूटे मकानों में बसी खामोशियाँ, और दरवाज़ों के पीछे दबी हुई वो यादें जिन्हें कभी सार्वजनिक नहीं किया गया। वो यहां एक नाम की तलाश में आया था – “ज़हीर उस्मानी” – वही नाम जो लाल फाइल के अंदर एक संदर्भ में दर्ज था, और जिसे ‘हाफ़िज़ अली का उसूल गुरू’ कहा गया था।

ज़हीर उस्मानी, एक समय में विश्वविद्यालयों में दर्शनशास्त्र पढ़ाने वाला प्रोफेसर, और बाद में वो शख्स जो हाफ़िज़ अली के सोचने की दिशा तय करता था। लेकिन अचानक गायब हो गया — न कोई FIR, न खबर। सिस्टम की नजरों में ऐसा शख्स मानो कभी था ही नहीं। मगर मोहल्ले के कुछ बुज़ुर्गों के ज़ेहन में उसका नाम अब भी धड़कता था। एक बुज़ुर्ग ने इहान से कहा, “वो हमें सिखाता था कि आज़ादी सिर्फ़ जश्न नहीं, ज़िम्मेदारी है। शायद इसी गुनाह में उसे गुमनाम कर दिया गया।”

इहान को फिर एक सुराग मिला — मोहल्ले की पुरानी लाइब्रेरी में रखी एक डायरी, जिस पर नाम नहीं था, सिर्फ़ इनिशियल्स लिखे थे: Z.U. डायरी में ज़हीर उस्मानी ने अपने आखिरी दिनों की दास्तान खुद लिखी थी – एक शिक्षक की जो छात्रों को सिर्फ़ किताबें नहीं, सोचने की ताक़त देता था। एक जगह लिखा था: “अगर मैं कल ग़ायब हो जाऊं, तो समझना मुझे मिटाया नहीं गया, मैं किसी की नींद में जाग गया हूं।”

डायरी के आखिरी पन्नों में हाफ़िज़ अली का ज़िक्र था — “वो मेरा सबसे होशियार छात्र है, और शायद सबसे ख़तरनाक भी — क्योंकि वो सवाल पूछता है, और जवाबों से समझौता नहीं करता।” ज़हीर ने लिखा था कि एक उच्च अधिकारी ने उसे बुलाकर धमकाया था: “तुम बच्चों को सिर्फ़ पढ़ा नहीं, भड़का रहे हो।” इसके बाद की तारीखों में पन्ने खाली थे… शायद उसी के बाद वो ग़ायब कर दिया गया।

इहान की आंखें नम थीं। वो जान चुका था कि हाफ़िज़ अली सिर्फ़ एक शख्स नहीं, बल्कि एक परंपरा की विरासत था — और ज़हीर उस्मानी उस विरासत की जड़। अब कहानी बदल रही थी। ये साज़िश सिर्फ़ एक विचारक की हत्या नहीं थी, बल्कि सोचने की आज़ादी के खिलाफ़ एक सिलसिलेवार युद्ध था।

बंद दरवाज़ों में चलती अदालतें

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सुनवाई की अगली तारीख से पहले इहान को एक दस्तावेज़ मिला, जो एक नामी रिटायर्ड जज ने गुप्त रूप से उसे पहुँचाया था। उस लिफाफे पर लिखा था: “Closed Proceedings – Not for Public Record.” ये वो फाइल थी, जिसमें उन बंद दरवाज़ों के पीछे की अदालती कार्यवाहियों का ब्यौरा था, जिनमें न मीडिया मौजूद होती है, न जनता, और न ही कभी सच्चाई। फाइल के पहले पन्ने में दर्ज था – “Case No. X94/Conf – Subject: Intellectual Threat Evaluation.” और अभियुक्त का नाम था — हाफ़िज़ अली।

इस केस की सुनवाई कभी खुले कोर्ट में हुई ही नहीं। न कोई वकील, न गवाह, न न्याय की सामान्य प्रक्रिया। सिर्फ़ एक “इंटेलिजेंस ब्रीफिंग” के आधार पर, एक गुप्त कमेटी ने उसे “राज्यविरोधी मानसिकता का संवाहक” घोषित कर दिया। इस फाइल में दर्ज था: “प्रशिक्षित युवाओं को वैचारिक रूप से प्रभावित करना, सार्वजनिक बहसों में सरकार की आलोचना करना, और संस्थानों की वैधता पर सवाल उठाना – ये सब राज्य को अस्थिर कर सकता है।”

इहान के रोंगटे खड़े हो गए। हाफ़िज़ अली पर कोई हथियार नहीं, कोई हिंसा नहीं, सिर्फ़ विचार का इल्ज़ाम था। और यही उसकी सबसे बड़ी ‘ग़लती’ थी। फाइल में लिखा था कि उसे “शारीरिक रूप से समाप्त” करने की सिफारिश खुद एक केंद्रीय सलाहकार समिति ने की थी — और दस्तख़त थे… उसी तारीक़ सैफ़ुद्दीन के।

इसी फाइल के अगले पन्ने पर एक और नाम था – “Project Moksh – Clearance of Ideological Threats.” ये एक गुप्त ऑपरेशन था, जिसमें ऐसे शिक्षकों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों की सूची थी, जो सरकार की विचारधारा से अलग सोच रखते थे। और इस सूची में तीसरे नंबर पर नाम था — इहान सिद्दीक़ी।

इहान ने पन्ना गिरा दिया। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि अब वो एक केस का रिपोर्टर नहीं, अगला निशाना था। “Project Moksh” में सिर्फ़ नाम नहीं, तारीख़ें और स्थान तक दर्ज थे — जैसे ये किसी अपराधी गिरोह की हिटलिस्ट हो। उसे समझ आ गया कि उसका पीछा क्यों किया जा रहा था, कॉल्स क्यों आ रहे थे, और उसकी माँ को अस्पताल में क्यों डाला गया था।

ये अदालतें नहीं थीं — ये सियासत के नकाब में सजा सुनाने वाले कोठे थे, जहां न्याय नहीं, आदेश दिए जाते थे। इहान ने सोच लिया था — “अगर ये दरवाज़े बंद हैं, तो मुझे उन दरवाज़ों को तोड़ने वाला शोर बनना होगा।

पत्रकार या देश का गुनहगार?

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इहान सिद्दीक़ी अब एक पत्रकार नहीं, सरकार की निगाह में एक “आपराधिक विचारधारा का संवाहक” बन चुका था। जिस इंसान ने कल तक सत्ता से सवाल किए, अब खुद सवालों के घेरे में था — मगर ये सवाल न तो नैतिक थे, न संवैधानिक, बल्कि साज़िश के हथियार थे। सुबह होते ही देशभर के न्यूज़ चैनलों पर एक ही हेडलाइन चमक रही थी — “इहान सिद्दीक़ी पर देशद्रोह का केस दर्ज – क्या ये पत्रकारिता की आड़ में राष्ट्रविरोध है?”

वो मीडिया जो कल तक उसकी पोस्ट को ‘क्रांतिकारी’ बता रही थी, अब उसे “देश की छवि धूमिल करने वाला एजेंट” बता रही थी। पुराने वीडियो क्लिप्स को तोड़-मरोड़कर चलाया जा रहा था, जहां इहान किसी बहस में सरकार की नीतियों की आलोचना कर रहा था। पैनल डिबेट्स में तथाकथित ‘विशेषज्ञ’ चीख-चीखकर कह रहे थे — “अगर ये पत्रकार है, तो कसाब भी राष्ट्रभक्त था।” और सोशल मीडिया पर ट्रेंड होने लगा – #DeshdrohiPatrakar

इहान को पहले ग़ुस्सा आया, फिर एक अजीब सी शांति। उसे समझ आ गया था कि अब ये उसकी लड़ाई नहीं रही — ये उन सभी की लड़ाई है जो हाफ़िज़ अली, ज़हीर उस्मानी और countless बेनामों की तरह सोचने और बोलने की आज़ादी चाहते हैं। लेकिन अब उसे अपना अगला क़दम बहुत सोच-समझ कर उठाना था — क्योंकि अगली गलती उसे हमेशा के लिए ख़ामोश कर सकती थी।

इसी बीच, उसे एक मेल मिला — एक अज्ञात हैकर ग्रुप की तरफ़ से। सब्जेक्ट लाइन थी: “We know you are not alone. Truth has allies.” मेल के साथ एक IP ट्रैकर फाइल थी, जिसमें दिखाया गया था कि पिछले हफ्ते उसकी वेबसाइट ‘GumnaamSach.in’ को किस-किस सरकारी डिपार्टमेंट ने मॉनिटर किया था। नाम देखकर इहान हक्का-बक्का रह गया — उसमें प्रधानमंत्री कार्यालय, रक्षा मंत्रालय, और आंतरिक खुफ़िया एजेंसियाँ तक शामिल थीं।

अब ये साबित हो गया था कि उसका सच किसी छोटे अफ़सर या लोकल पुलिस को परेशान नहीं कर रहा था — ये सत्ता की सबसे ऊँची मंज़िलों तक को डरा रहा था। मगर डर अब इहान की कमजोरी नहीं, उसकी रणनीति बन चुका था। उसने तय किया कि अगली बार वो खुद को डिफेंड नहीं करेगा — वो हमला करेगा, तथ्यों से, दस्तावेज़ों से, और लोगों की आवाज़ों से।

और तभी उसने एक वीडियो रिकॉर्ड किया — कैमरे के सामने खड़ा होकर बोला:
“अगर पत्रकारिता राष्ट्रविरोध है, तो हां, मैं देशद्रोही हूँ। मगर फिर आज़ादी भी गुनाह है, और संविधान एक अफ़वाह।”

जब साज़िशें खून से लिखी जाती हैं

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जिस रात इहान ने अपना वीडियो जारी किया, वो पूरी रात देश के युवा, पत्रकारिता के छात्र, और जागरूक नागरिक उस एक वाक्य को दोहराते रहे — “अगर पत्रकारिता राष्ट्रविरोध है, तो हम भी देशद्रोही हैं।” मगर इहान को पता था कि सत्ता ऐसी बातों से नहीं डरती — उसे डर लगता है उस सच्चाई से जो दस्तावेज़ों और सबूतों में छिपी होती है। इसलिए उसने “Project Moksh” से जुड़े हर नाम को इकठ्ठा करना शुरू किया, और उनमें से कुछ को ट्रैक कर लिया — लेकिन उनमें से कई अब इस दुनिया में नहीं थे।

तीन ऐसे शिक्षक जिनका नाम लिस्ट में था — एक ने दो साल पहले आत्महत्या की थी, एक सड़क हादसे में मारा गया, और तीसरा… उसका नाम तो मीडिया में कभी आया ही नहीं। मगर इहान को तीसरे का नाम सुनते ही झटका लगा — रज़ा महमूद, एक पूर्व पत्रकार, जो कभी “Janta Watch” नाम से अपनी वेबसाइट चलाता था। वो वेबसाइट अब डाउन थी, लेकिन इंटरनेट आर्काइव पर कुछ लेख अब भी बचे हुए थे — और उनमें एक लेख का शीर्षक था: “राष्ट्र के नाम नहीं, सच्चाई के नाम मरता हूं।”

इहान ने रज़ा के परिवार को खोज निकाला। एक छोटी-सी बस्ती में उसकी पत्नी, जो अब एक स्कूल में क्लर्क की नौकरी करती थी, इहान से बोली, “उसे भी बस यही शौक़ था — सच लिखने का। और उसकी मौत के बाद रिपोर्ट आयी ‘हार्ट अटैक’ की। लेकिन उसकी छाती पर कील के निशान थे… समझ रहे हो न आप?” उसकी आंखों में एक ही सवाल था – “कितनी लाशें और चाहिए होंगी सच्चाई को मान्यता दिलाने के लिए?”

इसी रात एक और हमला हुआ — इहान के सबसे भरोसेमंद साथी और वेबसाइट को संभालने वाले डेवलपर राहुल मेहता की गला कटा लाश एक पार्क से बरामद हुई। पुलिस ने कहा, “लूटपाट का मामला है।” मगर इहान जानता था – ये कोई लूट नहीं थी, ये एक पैग़ाम था।

राहुल के लैपटॉप से इहान को आखिरी फाइल मिली — “Z.U. Archive – Part 1”। यानी ज़हीर उस्मानी की आखिरी रिकॉर्डिंग, जो किसी को नहीं सुननी थी। इहान समझ गया, ये साज़िश सिर्फ़ शब्दों से नहीं, खून से लिखी जा रही है — एक-एक गवाह को मिटाया जा रहा है ताकि सवाल करने वाले डर जाएं। मगर अब डर इहान के लिए इंधन बन चुका था। उसने राहुल की तस्वीर को दीवार पर चिपकाया और लिखा —

“वो जो मरते हैं सच के लिए, वो हमेशा जिंदा रहते हैं। ये जंग अब उनकी भी है।”

गुमनाम सच का दूसरा नाम

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जिस दिन सुप्रीम कोर्ट में आखिरी सुनवाई थी, इहान सिद्दीक़ी वक्त से पहले पहुंचा। जेब में वो लाल फाइल का दूसरा पन्ना था, बैग में ज़हीर उस्मानी की ऑडियो रिकॉर्डिंग, और हाथ में एक पेन — जो अब सिर्फ़ लिखने का नहीं, इतिहास बदलने का औज़ार बन चुका था। बाहर मीडिया का हुजूम था, लेकिन अब वो सवाल पूछने नहीं, जवाब सुनने आए थे। क्योंकि अब तक की कहानी ने हर उस इंसान को झकझोर दिया था, जो कभी सोचता था कि एक अकेला पत्रकार क्या कर सकता है।

सुनवाई शुरू हुई। जजों ने इहान से पूछा, “क्या आपके पास अंतिम सबूत हैं जो इस केस को निर्णायक बना सकें?” इहान ने धीरे से ऑडियो रिकॉर्डिंग चलाई — आवाज़ थी ज़हीर उस्मानी की:अगर एक दिन मेरी आवाज़ बंद कर दी जाए, तो समझना मेरा काम पूरा हुआ… क्योंकि आवाज़ तब बंद की जाती है जब वो सच को छूने लगती है।”

इसके बाद इहान ने अदालत में वो सबूत पेश किए, जो अब तक टुकड़ों में थे — हाफ़िज़ अली की माली हालत का ब्यौरा, ज़हीर उस्मानी की डायरी के पन्ने, Project Moksh की फाइलें, और सबसे अहम — उस क्लिप की स्टिल फ्रेम जिसमें तीसरा आदमी, तारीक़ सैफ़ुद्दीन, लाल फाइल जलाता नज़र आता है। पूरा कोर्ट सन्न था। और तभी इहान ने कहा —

“Google pe naam nahin hai, मगर सच्चाई अब search engine से नहीं, इंसाफ़ से पहचानी जाएगी।”

जजों ने संज्ञान लिया, और मामले की जांच CBI को सौंप दी। मगर इहान जानता था कि यह केवल कानूनी जीत नहीं थी — ये उस नाम की वापसी थी, जिसे मिटा दिया गया था। अदालत से बाहर निकलते वक्त, जनता ने एक स्वर में नारा लगाया —“Hafiz Ali zinda hai!”

मगर इस बार यह नारा किसी पोस्टर या पेंटिंग का नहीं, एक आंदोलन का एलान था।रात को अपने कमरे में इहान अकेला बैठा था। टीवी पर न्यूज़ चैनलों ने यू-टर्न ले लिया था — “हाफ़िज़ अली केस में बड़ा खुलासा”, “पत्रकार इहान ने सत्ता को झुकाया”, “गुमनाम सच की गूंज अब हर कोने में।” लेकिन इहान जानता था —

गूंज अभी बाकी है।उसने अपनी डायरी के आखिरी पन्ने पर एक पंक्ति लिखी:

“गुमनाम सच का दूसरा नाम अब ‘वह आवाज़’ है — जिसे दबाया नहीं जा सकता, मिटाया नहीं जा सकता, बस सुना जा सकता है।”और नीचे उसने अगली रिपोर्ट का शीर्षक लिखा:

“Hafiz Ali Files – Part 2: Jis Ka Naam Lena Mana Hai.”

कहानी ख़त्म नहीं हुई थी। दरवाज़ा अब खुल चुका था… और उसके पार कोई और, हाफ़िज़ अली से भी बड़ा सच उसका इंतज़ार कर रहा था।

Part  1

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