43 Gayab Hote Logo Ki Kahani part 3
अब तक आपने देखा…
आरिफ़ और सारा, पुराने शहर के उस वीरान कोने में पहुँचे जहाँ एक जर्जर हवेली अपने रहस्यों को सदियों से सीने में छुपाए बैठी थी। दीवारों पर अजनबी निशान, टूटे शीशों से झाँकती अंधेरी परछाइयाँ, और हवाओं में बसी हुई एक अजीब सी सिहरन — सब कुछ जैसे किसी पुराने गुनाह की गवाही दे रहे थे।
लेकिन अचानक, सारा ग़ायब हो जाती है। आरिफ़ पुकारता रह जाता है, और जवाब में हवेली की दीवारें बस एक धीमी कराह सी लौटाती हैं…
43 गायब होते लोगों की कहानी: रहस्य जहां हर सुराग गुम है
तीसरी मंज़िल की उस संकरी, जर्जर सीढ़ी पर, एक टूटी हुई खिड़की से छनकर आती हल्की सी रोशनी भी अब धुंधली पड़ चुकी थी। दीवारों पर जमी सीलन, किसी पुराने और अधूरे ज़ख़्म की तरह सांस ले रही थी — गहराई में कहीं सड़ती हुई यादों की बू समेटे।
वहीं खड़ा था आरिफ़ — एकदम सन्न, पसीने से तर और आँखें डरी हुई। कुछ ही मिनट पहले, वहीं उसी जगह, सारा खड़ी थी। उसके चेहरे पर वो डर था जो चीख़ता नहीं, बस आँखों में जम जाता है।
आरिफ़, मुझे लग रहा है कोई हमें देख रहा है,” उसने बहुत धीमे स्वर में कहा था, जैसे डर उसे निगल न ले। वो बार-बार पीछे मुड़कर देख रही थी, जैसे कोई अदृश्य साया उसकी पीठ पर साँस ले रहा हो।
आरिफ़ ने हँसी में टालने की कोशिश की, मगर सारा की आँखों का वो ख़ालीपन, वो थरथराती आवाज़… सब कुछ अजीब था। और अब — वहाँ कोई नहीं था।
न कोई दरवाज़ा खुला, न किसी के कदमों की आहट हुई। बस फर्श पर एक टूटी हुई चूड़ी पड़ी थी — एक अधूरी चीख़ की तरह, जैसे कोई मौजूदगी बिना बोले सब कुछ कह गई हो।
सारा!” आरिफ़ की आवाज़ गूंज उठी, “मज़ाक मत करो, बाहर आओ!” लेकिन चारों ओर पसरी थी बस ‘शहर-ए-ख़ामोशी’।
तभी एक पुराना, ज़र्द कागज़ उड़ता हुआ उसके क़दमों में आ गिरा — वही गुमशुदा लोगों की लिस्ट… और अब उस पर एक नया नाम था — “सारा यूसुफ़”।
आरिफ़ की साँस अटक गई। तभी दीवार पर एक परछाईं हिली — मगर पलटने पर वहाँ कुछ भी नहीं था।
उसे अब यक़ीन हो चला था — ये इमारत सिर्फ़ लोगों को नहीं निगलती, उनकी आवाज़ों को भी हमेशा के लिए ख़ामोश कर देती है।
साए जो दीवारों पर नहीं रहते
आरिफ़ बार बार सारा का नाम पुकारता है , लेकिन कोई जवाब नहीं आता है। बस, हवा में एक हलकी सी सरसराहट उभरी — मानो किसी ने परदे के पीछे से झाँककर देखा हो और फिर ग़ायब हो गया हो।
फर्श पर पड़ी वो चूड़ी अब सिर्फ़ एक गहना नहीं थी — वो एक निशान थी, किसी ऐसे वजूद का जो कुछ देर पहले यहाँ मौजूद था, लेकिन वह अब दिखाई नहीं दे रहा था।
आरिफ़ के दिल में कुछ चुभा। उसने धीरे-धीरे क़दम बढ़ाए, उस कोने की तरफ़ जहाँ थोड़ी देर पहले सारा खड़ी थी। वहाँ एक पुराना लकड़ी का तख़्त था — धूल और जाले से ढंका हुआ। तख़्त के पीछे की दीवार पर कुछ अजीब था।
उसने मोबाइल की टॉर्च जलाकर देखा — दीवार खुरची हुई थी और उस पर उँगलियों से लिखा गया था: “17 अगस्त 1986”। एक अजीब सी तारीख़, जिसका मतलब वो नहीं समझ सका, लेकिन जिस अंदाज़ में वो लिखी गई थी, उससे ज़ाहिर था कि किसी ने बेहद डर और जल्दबाज़ी में उसे उकेरा था।
नीचे ज़मीन पर एक पुराना रूमाल पड़ा था — रेशमी, किनारों पर ज़र्दा के दाग़, और उस पर सिली हुई एक ‘S’। पास ही एक पायल भी थी — वही डिज़ाइन, वही झंकार… जैसी सारा पहना करती थी। मगर ये चीज़ें यहाँ कैसे हो सकती हैं? ये सब तो सारा के पास ही थीं, और वो तो अभी कुछ मिनट पहले तक यहाँ चल रही थी, मुस्कुरा रही थी… तो फिर?
आरिफ़ ने एक पल को आँखें बंद कीं, लंबी साँस ली और पीछे मुड़ा। तभी उसे लगा, खिड़की के पीछे से कोई देख रहा है। वो झपटकर पहुँचा, लेकिन खिड़की बंद थी, उसके किनारों पर जंग लगे हुए थे। बाहर निकलने का रास्ता कोई नहीं था।
और फिर अचानक… मोबाइल की टॉर्च बुझ गई।
घुप्प अंधेरे ने जैसे उसकी साँसें खींच लीं। हर तरफ़ सन्नाटा… और फिर एक आहिस्ता काँपती आवाज़: “आरिफ़…”
वो आवाज़ सारा की थी — लेकिन उसमें कुछ था, जो इंसानी नहीं लगता था। कोई कंपन, कोई दरार, जो सीधे उसकी रीढ़ की हड्डी में उतर गई।
उसने काँपते हाथों से टॉर्च फिर से ऑन की — और उस क्षण जो उसकी आँखों ने देखा…
वो उसकी ज़िंदगी की आख़िरी रोशनी हो सकती थी।
चेहरों के पीछे के साए
टॉर्च की रौशनी जब दोबारा जली, तो सामने की दीवार पर अंधेरे में लिपटा एक चेहरा उभरता दिखा — ना पूरी तरह इंसानी, ना पूरी तरह परछाईं। उसका चेहरा जैसे धुंध में घुला हुआ था, लेकिन आँखें साफ़ दिख रही थीं — खाली, बुझी हुई और अजीब तरीके से अरीफ़ को घूरती हुई।
अरीफ़ एक पल को वहीं जम गया, उसकी साँसें जैसे रुक गई हों। जिस्म पसीने से तर-ब-तर हो गया और उस पल की चुप्पी में जैसे सारा का नाम ज़हन में गूंजता रहा: “आरिफ़…”
वो परछाईं धीरे-धीरे पीछे की दीवार में समा गई, जैसे किसी ने उसे खींच लिया हो — दीवार के भीतर। लेकिन जाते-जाते वो दीवार पर एक और निशान छोड़ गई — एक जलता हुआ हाथ का निशान।
आग की कोई गर्मी नहीं थी, लेकिन उस निशान की चमक ने कुछ और उभार दिया — एक दरार, जैसे दीवार खुद कह रही हो: “उसे छुड़ाना है तो अंदर आ…”
आरिफ़ अब डर से आगे निकल चुका था। अब उसके भीतर सिर्फ़ एक ज्वाला थी — सारा को ढूंढने की। वो दीवार की ओर बढ़ा और दरार पर हाथ रखा। अचानक दीवार की ईंटें खुद-ब-खुद सरकने लगीं और एक तंग रास्ता खुला — एक गीली, अंधेरी सुरंग, जिसमें से सड़े हुए पानी और लोहे की सड़ी गंध आ रही थी। उस गंध में अजीब सी यादें थीं — जैसे किसी और ज़िंदगी की, जो अधूरी छोड़ दी गई हो।
आरिफ़ ने टॉर्च संभाली और सुरंग में कदम रखा। हर कदम के साथ पीछे की रौशनी फीकी होती गई और सामने की तन्हाई और गहरी। दाईं दीवार पर खरोंचों से बने कुछ शब्द दिखाई दिए — “हमने सिर्फ़ सवाल पूछे थे…” और फिर नाम — एक लंबी लिस्ट, जिनमें से एक नाम अब उसे अंदर तक चीर गया: “सारा ख़ान”
उसके दिल की धड़कनें तेज़ हो गईं। ये कोई संयोग नहीं था। जो साया उसने देखा था, वो कोई भटकती आत्मा नहीं, बल्कि उस रहस्य की चेतावनी थी जिसने अब आरिफ़ को पूरी तरह अपने शिकंजे में ले लिया था।
और फिर सुरंग के अंत में… एक दरवाज़ा। लोहे का, भारी, और उस पर एक धुँधला सा चेहरा उकेरा हुआ।
वही चेहरा जो उसने दीवार मेंदखा था
दरवाज़े के उस पार
आरिफ़ उस भारी लोहे के दरवाज़े के सामने खड़ा था, टॉर्च की रौशनी उस चेहरे को सहला रही थी जो दरवाज़े पर उकेरा गया था। वह चेहरा अब स्थिर नहीं था — लगता था जैसे वह साँस ले रहा हो, जैसे पत्थर के भीतर कोई जान छुपी हो।
उसकी आँखें बंद थीं, लेकिन उनमें कोई कंपन था, जैसे वो किसी इशारे का इंतज़ार कर रहा हो। आरिफ़ ने दरवाज़े को छूने की हिम्मत की। उसकी उंगलियाँ जैसे ही उस ठंडी धातु से टकराईं, एक कंपन उसके पूरे जिस्म में दौड़ गई — लेकिन यह डर का कंपन नहीं था, बल्कि एक पुरानी स्मृति का, एक खोए हुए वक़्त का, जो अब उसके सामने लौट आया था।
दरवाज़ा धीमे-धीमे कराहते हुए खुलने लगा, जैसे सदियों से बंद किसी रहस्य ने लंबी नींद से जागकर अंगड़ाई ली हो। भीतर से एक हल्की नीली रोशनी निकल रही थी — लेकिन वो रौशनी किसी बिजली की नहीं थी, वो जैसे किसी एहसास की थी, किसी याद की।
आरिफ़ ने गहरी साँस ली और एक कदम अंदर रख दिया। फर्श अब पत्थर का नहीं था — वो किसी पुराने, नम कालीन से ढँका हुआ था, जिस पर जगह-जगह ख़ून के धब्बों जैसे निशान थे। दीवारों पर टंगे हुए चित्र थे — पुराने, भुरभुरे कैनवस जिनमें अनजाने चेहरों के डरावने भाव थे। उनके चेहरे विकृत थे, और उनकी आँखें… सबकी आँखें आरिफ़ को ही देख रही थीं।
अचानक एक और दरवाज़ा उसके सामने बंद हो गया — वो पीछे मुड़ा, लेकिन जिस रास्ते से आया था, वो सुरंग अब गायब हो चुकी थी। अब आरिफ़ एक बंद कमरे में था। बीच में एक गोल मेज़, जिस पर रखी थी एक पुरानी लकड़ी की डायरी। उसने धीरे से डायरी खोली, और पहली ही लाइन ने उसके रोंगटे खड़े कर दिए:
“अगर ये पढ़ रहे हो, तो शायद तुम भी सारा को खोजने आए हो…”
पन्ने पलटे, तो उसमें दर्ज थे उन लोगों के नाम जो सालों से गुमशुदा थे — पत्रकार, वकील, प्रोफेसर… और फिर एक तारीख पर उसकी नज़र अटक गई — “2 जून 1997 — सारा खान को आख़िरी बार इसी सुरंग में देखा गया था।”
उसके नीचे सारा की अपनी लिखावट में एक आख़िरी नोट था:
“अगर आरिफ़ आए, तो उसे बताना — ये जगह एक दरवाज़ा नहीं, एक इम्तिहान है। मुझे बचाने के लिए उसे अपनी सच्चाई कुर्बान करनी होगी।”
आरिफ़ की साँस घुटने लगी। ये खेल अब सिर्फ़ तलाश का नहीं रहा — ये लड़ाई बन चुकी थी उस साए से, जो हर नाम के पीछे एक राज़ की तरह छुपा था। तभी कमरे की दीवारें हिलने लगीं। मेज़ के नीचे से ज़मीन दरकने लगी और फर्श के बीच में एक और दहलीज़ खुली — नीचे उतरती सीढ़ियाँ, जिनसे धुआँ उठ रहा था।
आरिफ़ ने टॉर्च को कसकर पकड़ा और खुद से बुदबुदाया — “अगर तुझे ढूँढने के लिए मुझे अपनी रूह छोड़नी पड़े… तो मैं तैयार हूँ, सारा…”
और उसने पहला क़दम उस दहलीज़ में रख दिया — जहाँ इंतज़ार कर रहा था अगला सच।
खामोशी का इम्तिहान”
वो रात अपने साथ सन्नाटा नहीं, एक इम्तिहान लेकर आई थी। आरिफ के हाथ काँप रहे थे — गली की दीवारों पर अब सिर्फ अंधेरा नहीं, शक की परछाइयाँ लटक रही थीं। सारा के ग़ायब होने के बाद मुहल्ले का हर चेहरा एक सवाल बन चुका था — “क्या आरिफ सच बोल रहा है?
पुलिस पूछताछ के बाद उसे घर तो छोड़ दिया गया, लेकिन नज़रों की गिरफ़्त से वो अब भी आज़ाद नहीं था। उस मोहल्ले में जहां हर आहट पर चाय का प्याला रुक जाता था, अब आरिफ के क़दमों की आवाज़ पर खामोशी पिघलने लगी थी।
आरिफ ने खुद को कमरे में बंद कर लिया था। वो बार-बार वही लास्ट कॉल चेक कर रहा था — सारा का नंबर… जो अब बंद था। उसकी दीवारों पर सारा की तस्वीरें थीं, वो तस्वीरें जिनमें मुस्कराहट नहीं, कोई रहस्य झलकता था।
और तभी एक तस्वीर की दराज़ से एक फटी हुई डायरी का पन्ना गिरा — उस पर सारा की लिखावट थी, “अगर मैं कभी ना लौटूँ, तो समझना कि मेरी ख़ामोशी भी एक आवाज़ थी।”
आरिफ की साँसें तेज़ हो गईं। उसने वो पन्ना उठाया, और उसे लगा जैसे कोई दरवाज़ा उसके सामने खुला हो — सारा ग़ायब नहीं हुई थी, शायद वो कहीं बुला रही थी। लेकिन कहाँ? क्यों?
उसी वक़्त, उसके फोन पर एक अननोन नंबर से मैसेज आया — “तलाश बंद कर दो। वरना अगला नाम तुम्हारा होगा।”
आरिफ की आँखें चौड़ी हो गईं। डर और जिज्ञासा की गिरफ़्त में अब वो वापस नहीं जा सकता था। ये अब सिर्फ सारा की तलाश नहीं थी — ये उस सन्नाटे का पीछा था जो हर जवाब को निगल रहा था…
दरवाज़े के पीछे क्या है?
आरिफ की उंगलियाँ अब भी काँप रही थीं। अननोन नंबर से आया मैसेज उसकी आँखों के सामने अब भी चमक रहा था – “तलाश बंद कर दो। वरना अगला नाम तुम्हारा होगा।”
उस एक पंक्ति में कोई धमकी नहीं, बल्कि एक साज़िश की ठंडी सांसें थीं।
वो घड़ी रात के ढाई बजा रही थी। मोहल्ला नींद की झील में डूबा था, लेकिन आरिफ का ज़ेहन तूफ़ान से भरा हुआ था। उसने उसी वक़्त खिड़की से झाँक कर देखा — गलियों में सन्नाटा पसरा था, मगर बिजली के खंभे के नीचे कोई परछाई हिल रही थी… कोई था जो उस पर नज़र रखे हुए था।
आरिफ को अब यक़ीन हो चला था — यह सिर्फ सारा की गुमशुदगी नहीं थी, ये एक ताने-बाने की शुरुआत थी, जो कहीं बहुत गहरा और बहुत पुराना था।
उसने तुरंत अपने कमरे की बत्ती बुझा दी और मोबाइल की टॉर्च ऑन करके उस फटे हुए डायरी पन्ने को फिर से पढ़ा — “अगर मैं कभी ना लौटूँ, तो समझना कि मेरी ख़ामोशी भी एक आवाज़ थी।”
वो पन्ना नीचे की ओर थोड़ा जला हुआ था… जैसे किसी ने उसे जलाने की कोशिश की हो, मगर पूरी तरह न जला सका हो।
आरिफ ने उस जली हुई किनारी को उंगली से धीरे-धीरे रगड़ा — और नीचे एक नाम उभर आया:
“हदीका हाउस – पोटरी लेन।”
पोटरी लेन…? वो गली जो अब ‘सुनसान गली’ के नाम से जानी जाती थी। मोहल्ले के बुज़ुर्ग कहते थे कि वहाँ कभी ज़िंदगी गूंजती थी, लेकिन एक हादसे के बाद लोगों ने उस जगह से मुंह मोड़ लिया था।
आरिफ अब पूरी तरह तैयार था। उसने जैकेट पहनी, डायरी का पन्ना जेब में डाला और धीरे से घर का दरवाज़ा खोला।
बाहर की हवा में ठंडक नहीं, कोई पुरानी सी बास थी — जैसे किसी भूली हुई किताब की ख़ुशबू… या फिर किसी बंद कमरे की घुटन।
उसने सीधी पोटरी लेन की तरफ रुख किया।
गली में कुत्ते भी चुप थे। पुराने मकानों के जालेदार झरोखे उसे देख रहे थे, जैसे आरिफ कोई मेहमान नहीं, कोई बिन बुलाया सवाल बनकर वहाँ दाख़िल हो रहा हो।
आख़िरकार वो पहुँचा — हदीका हाउस।
जर्जर लकड़ी का दरवाज़ा था, जिस पर धूल की मोटी परत जमी थी और दरवाज़े के दोनों तरफ दीवारों पर किसी ने पुराने वक़्त की टूटी-फूटी तख्तियाँ लगा रखी थीं:
“ये घर किराये पर नहीं है।”
“यहाँ कोई नहीं रहता।”
“वापस लौट जाओ।”
मगर आरिफ रुका नहीं।
उसने दरवाज़े पर हाथ रखा और धड़कते दिल से हल्के से धक्का दिया।
दरवाज़ा एक धीमी कराह के साथ अंदर की ओर खुल गया… और अंदर से एक सर्द हवा का झोंका बाहर आया, जो किसी कहानी की पहली सांस जैसा महसूस हुआ।
अंधेरे कमरे में पहली चीज़ जो दिखी… वो थी एक कुर्सी, और उस पर रखा एक गुलाब — सूखा हुआ, मगर अब भी अपनी जगह पर मौजूद।
दीवार पर एक तस्वीर टंगी थी — सारा की।
मगर नीचे लिखा था:
“ग़ायब: 2 साल पहले।”
आरिफ का दिमाग सुन्न हो गया।
तो क्या सारा… पहले भी एक बार ग़ायब हो चुकी थी?
तस्वीर की परछाईं
आरिफ उस तस्वीर को घूरता रह गया। कमरे की हवा में अब एक ठंडी सी थकान घुल रही थी, जैसे वक़्त ने यहाँ साँस लेना छोड़ दिया हो। दीवार पर टंगी सारा की तस्वीर में वही मुस्कान थी, जो उसने कॉलेज के पहले दिन देखी थी — लेकिन नीचे लिखा वो एक वाक्य उसके दिल को चीर गया: “ग़ायब: 2 साल पहले”।
“ये कैसे हो सकता है?” — आरिफ ने बुदबुदाते हुए खुद से पूछा। सारा अभी कुछ ही दिन पहले तो उसके साथ थी… फिर दो साल पहले ग़ायब कैसे हो सकती है?
कमरे की दीवारों पर नज़र दौड़ाते हुए उसकी आँखें एक दराज़ पर ठिठक गईं। उसने धीरे-धीरे उसे खोला। अंदर एक पुरानी डायरी थी — भूरी जिल्द, किनारे फटे हुए। पहले ही पन्ने पर सारा की लिखावट में कुछ शब्द थे:
“हर बार लौटती हूँ… मगर कोई मुझे पहचानता नहीं।”
आरिफ का दिमाग घूमने लगा। यह तो किसी आम गुमशुदगी की कहानी नहीं थी — ये समय से लड़ने की एक अनकही जंग थी। उसने तेज़ी से डायरी के और पन्ने पलटे — हर पन्ने पर तारीख़ें थीं, और हर तारीख़ में एक ही बात दोहराई गई थी:
“मैं यहाँ हूँ। कोई मुझे देख क्यों नहीं पा रहा?”
“आरिफ़… क्या तुम मेरी आवाज़ सुन पा रहे हो?”
इन शब्दों ने जैसे आरिफ की आत्मा को हिला दिया। उसने कभी सोचा भी नहीं था कि सारा ऐसी जंग लड़ रही होगी — और सबसे डरावनी बात ये थी कि शायद वो जंग अब उसकी भी हो चुकी थी।
अचानक पीछे की दीवार से ठक… ठक… ठक की आवाज़ आई। जैसे कोई उँगलियों से दीवार पर दस्तक दे रहा हो। आरिफ ने तुरंत टॉर्च उस दिशा में घुमाई, लेकिन वहाँ कुछ नहीं था — सिवाय उस पुरानी खिड़की के, जिसके बाहर सिर्फ़ धुंध थी।
फिर दीवार पर कुछ उभरने लगा — नमी से बनी परछाइयाँ आकार लेने लगीं। एक चेहरा… धुंधला, मगर दर्द से भरा हुआ। वही चेहरा जो पहले तहख़ाने में दीवार पर उभरा था। वही खाली आँखें, वही रुकती साँसें। और उसके नीचे, अचानक कुछ लिखा गया — जैसे कोई अदृश्य हाथ दीवार को उकेर रहा हो:
“कहाँ था तू जब मैं मदद के लिए पुकार रही थी?”
आरिफ ने एक पल को आँखें बंद कीं। डर अब तक कई रूपों में आया था — लेकिन अब उसे पछतावे का स्वाद भी मिल गया था। क्या वो वाक़ई अंधा था उस वक़्त जब सारा उसे संकेत दे रही थी?
लेकिन समय अब हाथ से निकल रहा था।
वो पलटा, जैसे भागने ही वाला था, तभी कमरे के कोने में एक और दरवाज़ा दिखा — आधा खुला हुआ। वहाँ से एक हल्की रोशनी आ रही थी, और किसी के गाने की धीमी-सी आवाज़ भी…
“लौट आओ, लौट आओ… ये शहर अब भी सुनता है…”
आरिफ ने धीमे कदमों से उस दरवाज़े की ओर बढ़ना शुरू किया… मगर तब उसे अहसास नहीं था, कि उस दरवाज़े के पीछे सिर्फ़ सारा नहीं… बल्कि उसकी अपनी परछाईं भी उसका इंतज़ार कर रही थी।
Part 4 बहुत जल्दी आ रहा है…….
Maza aa gaya kahani main