ख़ज़ाने की तलाश: मौत के दरवाज़े पर दस्तक
शहर के पुराने हिस्से में, जहाँ सड़कें अब धूल से भरी दास्तानों की तरह लगती थीं और खिड़कियों से झाँकती परछाइयाँ इतिहास की गवाही देती थीं — वहीं एक बूढ़ा शख़्स, अपने आख़िरी दिन गिन रहा था। उसका नाम था हाशिम अली।
उसकी आँखों में एक थकी हुई चमक थी, जैसे कोई रौशनी अब बुझने को हो — पर अंदर कहीं कोई ऐसा रहस्य पल रहा था, जो उसकी साँसों से भी ज़्यादा बोझिल था।
हाशिम के पास एक पुरानी, फटी हुई सी किताब थी — शायद किसी वसीयत की शक्ल में, या शायद एक नक़्शा — जो उसने जीवन भर सबसे छुपाकर रखा। जब कभी कोई पूछता कि इसमें क्या है, वो सिर्फ़ एक ठंडी मुस्कुराहट देता और कहता: “ये मेरी विरासत है… और इसकी आख़िरी सांसें मेरे साथ ही जाएँगी।” लेकिन वक़्त अब उसकी साँसों से तेज़ चल रहा था।
उस रात, जब शहर के मस्जिद की अज़ान किसी पुराने नक्कारे जैसी गूँज रही थी, हाशिम ने अपने पोते सलीम को पास बुलाया। उसकी काँपती उँगलियाँ उस किताब पर थीं, और लफ़्ज़ों में अजीब-सी घबराहट — “ये तुझे सौंप रहा हूँ… पर याद रख, ये ख़ज़ाना जितना क़ीमती है, उससे कहीं ज़्यादा ख़तरनाक भी है। जो इसमें जाएगा, शायद लौटे नहीं।”
सलीम की आँखों में सवाल थे, और हाशिम की आँखों में सिर्फ़ डर। दरअसल, ये सिर्फ़ कोई ख़ज़ाना नहीं था… ये एक अधूरी कहानी थी, जिसमें शामिल थे झूठ, लूट, मौत… और एक रहस्य — जो अब फिर से जागने को था।
ख़ज़ाने की तलाश की रहस्यमयी शुरुआत, जहाँ मौत हर क़दम पर छुपी है।
सलीम ने उस रात पहली बार अपने दादा को इस क़दर बेबस देखा था। हाशिम अली, जो कभी अपने वक़्त का सबसे दिलेर मुसाफ़िर माना जाता था — जिसके क़दमों ने कई सरहदें लांघीं, और जिसकी यादों में कई ज़मीनों की ख़ुशबू बसी थी — अब काँपती साँसों के साथ एक पुराना राज़ थमा रहा था। किताब को पकड़ते हुए उसके हाथ काँप रहे थे, जैसे वो किसी बोझ को नहीं बल्कि एक अजाब को सौंप रहा हो।
सलीम ने किताब के पन्ने पलटे — हर पन्ना जैसे किसी भूले हुए वक़्त की चीख़ हो। उसमें इबारतें थीं जिन पर वक़्त की गर्द जमी थी, कुछ अजीब से निशान, कुछ तसावीर, और एक नाम जो बार-बार उभरता था — “साबिर खान”।
किताब के बीचोंबीच एक क़दीम नक़्शा था, जिस पर कोई साधारण रास्ते नहीं थे, बल्कि ऐसे चिन्ह थे जो किसी क़बीले, किसी परम्परा, या शायद किसी बर्बाद तहज़ीब से ताल्लुक़ रखते थे।”साबिर खान कौन था?” सलीम ने पूछा।
हाशिम की आँखों में जैसे वक़्त ने पलटा खाया। “वो मेरा दोस्त था… या दुश्मन, अब कहना मुश्किल है। उसी ने ये किताब दी थी — और उसी ने मुझे इस रास्ते से दूर रहने की क़सम खिलाई थी। मगर अब वक़्त आ गया है कि तू इस सफ़र को पूरा करे।”
सलीम समझ नहीं पाया कि ये एक अमानत थी या एक चाल। मगर दिल के किसी कोने में एक अजीब सी हलचल थी — जैसे ये किताब उसके नसीब का हिस्सा थी। और यहीं से शुरू हुई “ख़ज़ाने की तलाश” — एक ऐसी तलाश जो सिर्फ़ दौलत के लिए नहीं थी, बल्कि अपने वजूद, अपने अतीत और अपने सच को जानने की भी थी…एक ऐसा रास्ता, जो शायद उसे उस दरवाज़े तक ले जाए — जो कभी खुला ही नहीं…
क़दम क़दम पर साज़िश | Saazisho Bhari Raah
हाशिम अली की आँखें हमेशा के लिए बंद हो चुकी थीं, लेकिन सलीम की आँखों में एक नई आग जल उठी थी — एक सवालों से भरी, और खतरों से अंजान आग। उसने दादा की छोड़ी हुई किताब को काँपते हाथों से उठाया। उसकी धड़कनों की रफ़्तार उस पुराने कमरे की ख़ामोशी को चीर रही थी। किताब के हर पन्ने पर वक़्त की गर्द जमी थी, मगर जैसे-जैसे उसने पढ़ना शुरू किया, एक भयानक सच्चाई सामने आने लगी — ये कोई साधारण नक़्शा नहीं था, बल्कि एक खून से सनी हिकायत थी।
नक़्शे में दर्ज रास्ते, संकेत और कोड इतने आसान नहीं थे जितने नज़र आते थे। कुछ पन्नों पर अजीब निशान थे — जैसे किसी गुप्त संगठन की मुहर। किताब के एक कोने पर एक तारीख़ लिखी थी: “21 अगस्त, 1947 — विश्वासघात की रात।” सलीम की पेशानी पर पसीना आ गया। क्या यह वही रात थी जब उसके दादा के बड़े भाई अचानक ग़ायब हो गए थे? क्या उनकी मौत महज़ इत्तेफ़ाक़ थी, या फिर इस खज़ाने की राह का पहला क़त्ल?
सलीम को एहसास हुआ कि वो अब एक ऐसे रास्ते पर चल पड़ा है, जहाँ हर मोड़ पर सिर्फ़ रास्ता नहीं, एक साज़िश छुपी है। उसके क़दमों की आहट अब कुछ लोगों के लिए ख़तरा बन चुकी थी। हवेली के बाहर खड़ा वो अजनबी बुज़ुर्ग, जो अक्सर भीख माँगने आता था, उसी रात दरवाज़े पर फिर से आया — मगर इस बार उसकी नज़रें सीधी किताब पर थीं। क्या वो सच में भिखारी था… या कोई और?
सलीम ने किताब को पास रखा और अंदर से दरवाज़ा बंद कर लिया। उसे अब समझ आ रहा था — दादा ने जिस विरासत की बात की थी, वो सिर्फ़ धरोहर नहीं, एक रणभूमि थी। और वो रण अब शुरू हो चुका था…
विरासत की आख़िरी साँसें
सलीम की साँसें तेज़ हो गईं। उस अजनबी की आँखें किसी भूले हुए इतिहास की तरह चमक रही थीं — जैसे वो जानता हो कि किताब में क्या लिखा है, और क्या छुपाया गया है। बाहर अब भी बारिश की बूँदें टिन की छत पर तड़तड़ा रही थीं, लेकिन सलीम को महसूस हो रहा था कि उसके घर की दीवारों के पार भी कोई उसे देख रहा है।
अचानक हवेली के पीछे किसी भारी चीज़ के गिरने की आवाज़ आई। सलीम चौंका। वो किताब उठाकर भीतर बने तहख़ाने की ओर भागा — वही तहख़ाना जहाँ उसके दादा अक्सर अकेले समय बिताया करते थे।
नीचे उतरते ही उसे एक पुराना संदूक़ दिखाई दिया — लोहे का, जंग खाया हुआ। उसने काँपते हाथों से उसका ढक्कन खोला। अंदर एक और पुरानी डायरी थी, कुछ पुराने सिक्के, और एक छोटा-सा हाथ से बना हुआ ताबीज़।
डायरी के पहले पन्ने पर एक लाइन लिखी थी: अगर ये पढ़ रहे हो, तो समझो खेल शुरू हो चुका है।”
सलीम की रगों में सर्द लहर दौड़ गई। यह केवल खज़ाने की खोज नहीं थी — यह एक क़ुरबानियों से सजी दास्तान थी, जिसमें उसका नाम अब दर्ज हो चुका था।
तभी तहख़ाने की सीढ़ियों से किसी के उतरने की आहट सुनाई दी। सलीम ने किताब और डायरी जल्दी से अपनी जैकेट में छुपाई।
क़दम अब और क़रीब आ चुके थे…
(क्या सलीम को पीछे हट जाना चाहिए था, या वो उस अनदेखे राही से मिलने को तैयार था?)
टूटते रिश्ते, उभरते शक
सलीम की साँसें थम सी गईं। तहख़ाने की सीढ़ियाँ, जो अब तक एक जानी-पहचानी जगह थीं, आज किसी परायी आहट से डराने लगी थीं। हर क़दम जैसे ज़मीन पर नहीं, सलीम की रूह पर पड़ रहा था। वो ताबीज़ उसकी हथेली में जकड़ा हुआ था — गर्म, मानो उसमें कोई अनजाना असर हो।
आहटें पास आती गईं… और फिर एक जानी-पहचानी आवाज़ गूंज उठी, “सलीम… तू यहाँ क्या कर रहा है?”
ये उसके मामू जान थे — फ़ैज़ अंकल। सलीम ने हैरानी और डर के बीच उन्हें देखा। वो हमेशा उसके साथ सख़्त लेकिन मोहब्बत से पेश आते थे। मगर आज उनके चेहरे पर एक अजीब सा तनाव था, और उनकी नज़रें सीधी सलीम की जैकेट पर जा टिकी थीं, मानो वो जान गए हों कि उसमें क्या छुपा है।
“कुछ नहीं… बस नीचे से किताब लेने आया था,” सलीम ने लरज़ती आवाज़ में कहा।
“कौन सी किताब?” फ़ैज़ अंकल ने आगे बढ़ते हुए पूछा।
सलीम ने जवाब नहीं दिया। उसकी खामोशी ने जैसे तहख़ाने की हवा को और भारी कर दिया।
“तुम्हें नहीं पता, उस संदूक़ को कभी नहीं खोलना था,” फ़ैज़ अंकल ने कहा, और उनका चेहरा अब नाराज़ी से नहीं, बल्कि चिंता से भरा हुआ था। “इस किताब की वजह से हमारे ख़ानदान में पहले भी ख़ून बह चुका है।”
सलीम चौंक गया। “ख़ून? लेकिन ये सब तो… बस कहानियाँ थीं न?”
“कहानियाँ नहीं, इत्तेहास हैं। तेरे दादा का भाई — ज़हीर — वो भी इसी किताब की तलाश में मारा गया था। और अब तू…”
सलीम की रगों में एक बार फिर वही सर्द लहर दौड़ गई।
अब शक़ सिर्फ किताब पर नहीं, फ़ैज़ अंकल पर भी होने लगा था। क्या वो सलीम की हिफ़ाज़त के लिए बोले थे, या ये सब एक और परतदार खेल का हिस्सा था?
और सबसे बड़ा सवाल — क्या वो सच में अकेला था इस तहख़ाने में?
गुमशुदा रिश्तों की दस्तक
सलीम की धड़कनों की रफ़्तार अब इंसानी हद से आगे बढ़ चुकी थी। हर कदम की आहट तहख़ाने की नम दीवारों से टकरा कर एक अजीब-सी गूंज पैदा कर रही थी — जैसे वक़्त खुद उसके सामने चल रहा हो, किसी पुरानी साज़िश की परतों को उधेड़ते हुए। उसके होंठ सूख चुके थे, और जैकेट के अंदर छुपाई गई डायरी मानो धड़क रही थी। सलीम ने दीवार के साथ सटकर खुद को छुपा लिया, साँसें थाम लीं।
फिर वो दिखाई दिया — वही अजनबी, जिसकी आँखें सवाल नहीं पूछतीं, बस जवाबों की तरफ़ इशारा करती थीं। वो सीढ़ियों से धीरे-धीरे नीचे उतर रहा था, हाथ में एक पुराना लालटेन, जिसकी लौ अजीब तरह से काँप रही थी।
उसने चारों ओर देखा, फिर अपनी नज़र ठीक वहाँ टिका दी जहाँ सलीम खड़ा था — जैसे वो जानता हो कि वो वहीं है।
जो कुछ तुमने उठाया है, वो सिर्फ़ तुम्हारा नहीं है,” उसने कहा, उसकी आवाज़ में वक़्त की गर्द भी थी और भविष्य की धमक भी। “उस डायरी में जो लिखा है, वो हक़ीक़त नहीं… वो साज़िश है। लेकिन अब जब तुम पढ़ चुके हो, तुम इसका हिस्सा बन चुके हो।”
सलीम ने एक क़दम आगे बढ़ाया। “आप कौन हैं? और ये सब… ये खेल क्या है?”
अजनबी मुस्कराया, लेकिन उस मुस्कान में कोई राहत नहीं थी — सिर्फ़ एक बोझिल स्वीकारोक्ति। “मैं वो हूँ जिसे सबने भुला दिया, लेकिन जिसने सब कुछ लिखा। सलीम… तुम्हारा रिश्ता इस विरासत से जितना गहरा है, उतना ही टूटा हुआ भी। और अब वक़्त आ गया है कि टूटे रिश्ते फिर से ज़िंदा हों — या हमेशा के लिए दफ़्न हो जाएं।”
सलीम के मन में एक तूफ़ान उठा — क्या वो अपने खून के इतिहास को स्वीकार करेगा, या उस रास्ते से भागेगा जो अब बिना लौटने के लिए खुल चुका था?
क्या वो सच में अकेला था इस तहख़ाने में?
सलीम ने चारों ओर देखा। तहख़ाने की दीवारें अब पहले जैसी नहीं लग रही थीं। जैसे वो कुछ छुपा रही हों — जैसे किसी बीते ज़माने की सिसकियाँ उन ईंटों के दरम्यान कैद हों। फ़ैज़ अंकल की आँखों में अब सलीम को कोई जान-पहचानी गर्मी नज़र नहीं आई, सिर्फ़ एक बेचैनी, एक डर — जो शायद किताब से बड़ा था।
मामू जान… आप ने कहा ज़हीर मारा गया था… लेकिन कैसे?” सलीम ने हिम्मत करके पूछा।
फ़ैज़ अंकल कुछ पल चुप रहे। उनका गला सूख गया था, उन्होंने एक लंबी साँस ली और धीमे स्वर में बोले, “उसने उस किताब को पढ़ने की कोशिश की थी। पर वो सिर्फ़ शब्द नहीं हैं, सलीम… वो दरवाज़ा हैं। और हर दरवाज़ा खोलने लायक़ नहीं होता।”
सलीम ने किताब को अपनी जैकेट में और भी कसकर दबा लिया। ताबीज़ की गर्मी अब हथेली में चुभने लगी थी। “लेकिन ये किताब यहाँ क्यों है? और आप… आप सब जानते हैं, फिर इसे किसी ने मिटा क्यों नहीं दिया?”
क्योंकि ये मिटती नहीं,” फ़ैज़ अंकल ने धीरे से कहा। “हमने इसे जलाने की कोशिश की, दफ़नाया, बहाया… लेकिन हर बार ये लौट आई। और हर बार किसी ने इसकी कीमत चुकाई।”
सलीम की धड़कनें अब किसी ड्रम की तरह गूंजने लगी थीं। उसके अंदर दो आवाज़ें थीं — एक कहती, “भाग जा,” दूसरी कहती, “तलाश ख़त्म करने का वक़्त आ गया है।”
तो क्या तुमने इसे कभी खोला?” सलीम ने अचानक पूछा।
फ़ैज़ अंकल की आँखें कुछ पल के लिए बुझ गईं। जैसे किसी पुराने ज़ख़्म को फिर कुरेदा गया हो। “हाँ,” उन्होंने बमुश्किल कहा, “मैंने खोला था… और उसी दिन मेरी बहन — तेरी माँ — हमेशा के लिए बदल गई।”
सलीम का दम घुटने लगा। उसकी दुनिया हिल गई। उसने जो जाना था, वो अब रेत की तरह उसकी मुट्ठी से फिसल रहा था।
तुमने मुझसे ये सब पहले क्यों नहीं कहा?” वो चीखा।
क्योंकि तेरे पास वक़्त था, पर अब नहीं है,” फ़ैज़ अंकल ने एक झटके से उसके कंधे पर हाथ रखा। “उस किताब ने तुझे चुन लिया है, सलीम। अब या तो तू उसे समझेगा… या वो तुझे खा जाएगी।”
तभी… तहख़ाने की एक दीवार से किसी ने हल्की सी दस्तक दी।
ठक… ठक… ठक…
सलीम और फ़ैज़ अंकल दोनों ठिठक गए। आवाज़ दीवार के उस हिस्से से आ रही थी जहाँ एक पुरानी लकड़ी की अलमारी रखी थी। फ़ैज़ अंकल ने सलीम की ओर देखा और फुसफुसाए, “ये शुरू हो गया है…”
“क्या?” सलीम पीछे हट गया।
वो जो किताब की रूहों से बंधा है। अब वो जाग चुकी है।”
अचानक अलमारी के पीछे से जैसे कोई परछाईं सरक कर बाहर निकली — बिना आवाज़ के, मगर इतनी गहरी कि रौशनी उससे डर जाए।
सलीम की टाँगें जवाब देने लगीं। ताबीज़ अब जलने लगा था, और किताब अपने आप कांपने लगी — मानो उसमें बंद लफ्ज़ कोई दरवाज़ा पीट रहे हों।
“मुझे बताओ, इसे कैसे रोका जाए!” सलीम ने काँपती आवाज़ में कहा।
फ़ैज़ अंकल पीछे हट गए। उनके होंठ थरथरा रहे थे — “अगर तू पीछे हटा… तो वही होगा जो ज़हीर के साथ हुआ था। लेकिन अगर तू आगे बढ़ा… तो शायद ये सिलसिला हमेशा के लिए ख़त्म हो जाए।”
परछाईं अब हवा में बदल रही थी, धुएँ की तरह सलीम के चारों तरफ़ घूमती हुई — और उस धुएँ में चेहरें थे।
उन चेहरों में एक उसकी …….
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