Most Mysterious & Spine-Chilling 43 गायब होते लोगों की कहानी Part 4

Most Mysterious & Spine-Chilling 43 गायब होते लोगों की कहानी  Part 4

Most Mysterious & Spine-Chilling 43 गायब होते लोगों की कहानी Part 4

आरिफ़ का हर क़दम उस आधे खुले दरवाज़े की ओर किसी खिंचाव की तरह जा रहा था — मानो कोई अदृश्य ताक़त उसे अंदर बुला रही हो। गाने की धीमी आवाज़ अब थोड़ी साफ़ होने लगी थी, और उसमें एक बेचैन कराह छिपी थी। “लौट आओ…” — ये आवाज़ सारा की लग रही थी, मगर उसमें मानो कई और आवाज़ें भी शामिल थीं। जैसे हर ग़ायब शख़्स की पुकार एक ही धुन में बदल गई हो।

आरिफ़ ने दरवाज़े को पूरी तरह खोला। सामने एक लंबा गलियारा था — दीवारों पर पीलापन, छत से टपकता पानी, और बीच में फैली धुंध, जो किसी पुराने वक़्त की राख जैसी लग रही थी। फर्श पर जगह-जगह काग़ज़ के टुकड़े बिखरे थे। उसने एक टुकड़ा उठाकर देखा — ये सब डायरी के पन्ने थे, जिनमें अलग-अलग नाम थे और एक ही बात: “हमने भी पुकारा था…”

आरिफ़ के दिमाग़ में एक झटका-सा लगा — क्या ये उन्हीं 43 लोगों की कहानियाँ थीं जो इस रहस्यमयी जाल में गुम हो चुके थे? दीवारों पर अब परछाइयां चलने लगी थीं — मानो हर नाम के साथ एक अक्स जुड़ा हो, जो उसे देख रहा हो।

तभी गलियारे के अंत में एक साया दिखाई दिया— सफ़ेद कपड़ों में एक लड़की। जो आरिफ़ की ओर पीठ करके खड़ी थी। उसके बाल गीले थे, और जैसे ही उसने सर घुमाया… आरिफ़ के पैरों तले ज़मीन खिसक गई।

वो सारा थी। लेकिन उसका चेहरा वैसा नहीं था जैसा आरिफ़ ने देखा था। उसकी आँखें बुझी हुई थीं, और चेहरा ठंडा — जैसे वक्त ने उसे जकड़ लिया हो। फिर भी, उसने धीरे से मुस्कुराकर सिर्फ़ एक शब्द कहा: “देर हो गई…”

43 गायब होते लोगों की कहानी । पुकार जो लौटकर आई

Most Mysterious & Spine-Chilling 43 गायब होते लोगों की कहानी Part 4

आरिफ़ की साँसें जैसे थम सी गईं । “देर हो गई…” — ये शब्द कानों से होते हुए सीधा उसकी रूह में उतर गए। इन तीन लफ़्ज़ों ने उसका सीना जैसे चीर दिया हो। शायद ये वो सज़ा थी जो इंतज़ार से कहीं ज़्यादा गहरी थी। वो एक क़दम पीछे हट गया — जैसे किसी अदृश्य दीवार से टकराया हो। लेकिन उसी पल, सारा ने धीरे से अपनी कांपती हुई उंगलियाँ उसकी ओर बढ़ाईं। उसकी उंगलियाँ हवा में तैर रही थीं, जैसे किसी भूले हुए वादे की परछाईं वापस लौट आई हो। उस छुअन में कोई गर्मी नहीं थी, लेकिन एक जानी-पहचानी कसक थी — एक ऐसा एहसास, जो वक़्त से परे था।

आरिफ़ ने अपनी घबराहट को क़ाबू में किया, और दिल की धड़कनों को थामते हुए एक क़दम आगे बढ़ाया। जैसे ही उसने सारा की ओर हाथ बढ़ाया — अचानक पूरा गलियारा एक सिहरन से भर गया। दीवारों से अजीब-सी कराहती आवाज़ें उठने लगीं, जैसे वक़्त खुद दर्द में हो। पुरानी किताबों के पन्ने हवा में तैरने लगे — उनमें कुछ लिखा नहीं था, लेकिन फिर भी उनकी ख़ाली उड़ान में हज़ारों कहानियाँ दबी हुई थीं। हर परछाईं जैसे जाग उठी थी, अपने वजूद की गवाही देने लगी थी। वक़्त शायद अपने सारे ग़ायब लम्हों को एक साथ ज़िंदा कर रहा था।

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सारा अब धीरे-धीरे हवा में घुलने लगी थी — जैसे वो कोई इंसान नहीं, बल्कि एक पुकार की अधूरी याद थी। उसकी आँखों से एक आँसू का क़तरा गिरा लेकिन ज़मीन पर नहीं , बल्कि हवा में ही ठहर गया — उस एक बूँद में आरिफ़ ने वो सारे चेहरे देखे जिन्हें कभी देखा ही नहीं था — वो 43 गुमनाम चेहरे जो एक-एक कर उस आँसू में उभरने लगे थे।

फिर सारा की आवाज़ आई — मगर अब वो सिर्फ उसकी नहीं थी, वो उन सबकी आवाज़ बन चुकी थी, जो कभी थे, मगर अब नहीं हैं — “आरिफ़… अगर तुम अब लौटे, तो हमारी तलाश अधूरी रह जाएगी…”

आरिफ़ ठिठक गया। अब सवाल ये नहीं था कि वो आगे बढ़े या पीछे लौटे — सवाल ये था कि क्या अब वापसी मुमकिन भी है?

दरवाज़े की दूसरी तरफ़

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आरिफ़ की साँस अटकी रही — जैसे किसी अनदेखी ज़ंजीर ने उसे जकड़ लिया हो। सारा की आवाज़ अब सिर्फ हवा में गूंजती एक पुकार नहीं थी, बल्कि एक रास्ता भी था — जो सीधे उस अंधेरे की तरफ़ जाती थी जहाँ वक़्त ठहरा हुआ था। गलियारे की रौशनी अब मांद हो चुकी थी, पर आरिफ़ की आँखों में एक नई चमक थी — वो चमक जो डर से नहीं, यक़ीन से पैदा होती है।

उसने धीरे-धीरे कदम बढ़ाए, और हर कदम के साथ ज़मीन जैसे साँस लेने लगी — जैसे बरसों से किसी के लौटने का इंतज़ार हो। दीवारों पर अब तस्वीरें उभरने लगी थीं — धुँधली आकृतियाँ जो पहले सिर्फ़ परछाइयाँ थीं, अब चेहरे बन चुकी थीं। उन चेहरों में कोई बच्चा मुस्कुरा रहा था, कोई औरत मदद के लिए हाथ बढ़ा रही थी, कोई बूढ़ा इंसान अपने आंसुओं को छुपा रहा था। ये वही लोग थे — 43 चेहरे — जिनकी तलाश एक दस्तक बनकर आज आरिफ़ की रगों में उतर रही थी।

उसने एक आख़िरी बार मुड़कर देखा — पीछे सिर्फ़ सन्नाटा था। आगे… एक धुंधली दरार, जो समय और हक़ीक़त के बीच की सरहद बन चुकी थी। आरिफ़ ने अपनी साँस थामी और उस दरार में क़दम रख दिया।

उस दरार के पार… कुछ बदल रहा था। हवा अब वो नहीं रही थी। उसकी सरसराहट में अब उन तमाम आवाज़ों की गूँज थी — जो कभी दुनिया की भीड़ में खो गई थीं।

आरिफ़ अब सिर्फ़ एक इंसान नहीं था — वो अब एक सवाल बन चुका था। एक ऐसा सवाल, जो जवाबों की तरफ़ बढ़ रहा था।

साए जो दीवारों पर जिंदा हैं

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आरिफ़ के क़दम वहीं थमे रहे, लेकिन उसका दिल अब किसी और ज़मीन पर धड़क रहा था — जहाँ वक़्त रुक चुका था और हर लम्हा एक सवाल बन चुका था। उसके चारों तरफ़ हवा जैसे भारी होती जा रही थी, मानो उसमें सैकड़ों अनकही कहानियाँ घुली हुई हों। सारा का आँसू अब भी हवा में ठहरा हुआ था, लेकिन उसमें अब कुछ बदलने लगा था — चेहरे सिर्फ़ दिखाई नहीं दे रहे थे, अब वे बोल भी रहे थे।

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“हम सब यहाँ नहीं हैं, लेकिन हमारी चीख़ें अभी ज़िंदा हैं…”यह आवाज़ें एक ही स्वर मैं आने लगीं।

“हम सो नहीं पाए, क्योंकि जवाब अधूरे हैं…” दूसरा चेहरा फुसफुसाया।

हर चेहरा, हर आवाज़ अब एक तहरीर बन चुकी थी — गुमशुदगी की ऐसी तहरीर जिसे किसी ने कभी दर्ज ही नहीं किया। आरिफ़ का चेहरा स्याह पड़ता जा रहा था — भीतर कहीं कुछ टूट रहा था, या फिर नया बन रहा था, यह तय करना मुश्किल था।

वो आगे बढ़ा। सारा अब पूरी तरह किसी धुंध में तब्दील हो चुकी थी — जैसे वो एक दरवाज़ा थी, जो अब खुल चुका था। आरिफ़ ने जैसे ही उस धुंध के बीच क़दम रखा, एक तेज़ सर्द हवा ने उसकी साँसों को थाम लिया। उसकी आँखों के सामने अचानक एक दृश्य उभरा — एक पुराना स्टेशन, जहाँ एक लड़की हँसती हुई ट्रेन से उतरती है, और फिर अगले ही पल ग़ायब हो जाती है।

“क्या तुम उसकी कहानी जानते हो?” वो आवाज़ फिर आई।

आरिफ़ ने सर झुकाकर जवाब दिया — “नहीं… लेकिन अब जानना ज़रूरी है।”

धुंध और गहरी होती गई। उसके सामने एक काँच की परत सी बनी, जिसमें पुराने अख़बारों की कतरनें, टूटी घड़ियाँ, और लापता लोगों की तस्वीरें धीरे-धीरे उभरने लगीं।

वो अब उस राह पर था, जहाँ लौटना एक धोखा और आगे बढ़ना एक क़सम था…

ग़ायब वक़्त की सुरंग

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धुंध के उस दरवाज़े से गुज़रते ही जैसे वक़्त ने अपना रुख़ मोड़ लिया था। आरिफ़ अब किसी दूसरी ही दुनिया में था — न ये शहर वैसा था, न हवा में वह गंध थी। यहाँ सब कुछ किसी भूले हुए समय जैसा था, जमी हुई साँसों की तरह ठहरा, लेकिन फिर भी हर चीज़ में एक अजीब सी हरकत थी — जैसे हर दीवार कुछ कह रही हो, हर साया किसी को ढूँढ रहा हो।

उसके पैरों के नीचे जो ज़मीन थी, वो दरअसल ज़मीन नहीं, किसी पुराने प्लेटफ़ॉर्म की टूटी हुई पटरीयाँ थीं — जिन पर अब न कोई ट्रेन आती थी, न रवानगी की कोई सीटी सुनाई देती थी। चारों तरफ़ वीरान बेंचें, टूटी टिकट खिड़कियाँ, और दूर एक धुँधलाती हुई घड़ी — जिसमें वक़्त “3:17” पर रुका हुआ था।

“यहाँ से सब शुरू हुआ था…” एक खुरदुरी आवाज़ उसके पीछे से आई।

आरिफ़ ने पलटकर देखा — एक बूढ़ा दरबान-सा आदमी, जिसकी आँखों में नींद नहीं, सिर्फ़ इंतज़ार था।

“किसका?” आरिफ़ ने पूछा।

“जिसे तुम तलाश रहे हो… और जिनके पीछे ये सारा शहर सोता चला गया।”

“वो सब जो ग़ायब हुए — एक ही ट्रेन से जुड़े थे… एक ट्रेन जो उस दिन आई भी थी और नहीं भी।” आरिफ़ सिहर गया।

“कौन थी वो लड़की? जो स्टेशन पर उतरकर ग़ायब हुई थी?”

बूढ़े ने धीमे से कहा — “सारा… लेकिन वो अकेली नहीं थी। उस दिन कुल 43 लोग ट्रेन से उतरे थे… और फिर कभी दिखाई नहीं दिए। कोई रिकॉर्ड नहीं, कोई गवाही नहीं… बस एक स्याह सुरंग, जो ट्रेन के साथ ही जैसे निगल गई उन्हें।”

आरिफ़ ने धीरे से पूछा, “वो सुरंग अब भी है?”

बूढ़ा हँसा — “सिर्फ़ उन लोगों के लिए खुलती है जो सवाल लेकर आते हैं… और वापस नहीं लौटते।”

और तभी — उस वीरान स्टेशन की पिछली दीवार, जिसे सब आम समझते थे, अचानक हिलने लगी। दीवार के पीछे से जैसे कोई दरवाज़ा खुल रहा हो —

आरिफ़ ने पीछे देखा — ना कोई शोर, ना कोई राह। बस वो और उसकी जिज्ञासा।

उसने कदम बढ़ाया — उस सुरंग की ओर… जहाँ शायद सिर्फ़ जवाब नहीं, बल्कि वो भी उसका इंतज़ार कर रहे थे… जो कभी लौट कर नहीं आए।

स्याह सुरंग का पहला सच

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जैसे ही आरिफ़ ने सुरंग के मुँह में पहला क़दम रखा, हवा का स्वाद बदल गया — अब उसमें लोहे की ज़ंग, भीगी मिट्टी और किसी पुराने दर्द की गंध थी। सुरंग अंदर से उतनी ही ज़िंदा लग रही थी, जितनी बाहर से मरी हुई। हर दीवार से जैसे सिसकियों की गूँज टकरा रही थी। आरिफ़ ने मोबाइल की टॉर्च जलाई, लेकिन रोशनी बस कुछ क़दमों तक ही जा पाई — ऐसा लगा जैसे बाक़ी रोशनी को गहराई ने निगल लिया हो, जो मानो अब उसकी हिम्मत को माप रही थी।

चार कदम अंदर बढ़ते ही, सुरंग के भीतर एक धीमी रौशनी टिमटिमाई — दीवारों पर तस्वीरें थीं। धूल और समय से मटमैली हो चुकीं, मगर पहचानने लायक।

सारा,

रफीक़,

नीला,

डैनी,

और एक-एक करके 43 चेहरे।

हर तस्वीर के नीचे वही तारीख़ — “17 अप्रैल 3:17 PM”

और एक शब्द: “गुम”

आरिफ़ का दिल ज़ोर से धड़कने लगा। ये सब लोग… यहाँ मौजूद थे? या सिर्फ़ इनकी कहानियाँ?अचानक सुरंग में हल्की सरसराहट हुई। जैसे कोई और भी है यहाँ।

“तुमने आने में देर कर दी…”वही आवाज़… वही सारा की मिली-जुली पुकार, अब और पास से आई।

दीवारों से अचानक सफ़ेद धुआँ उठने लगा — और उसमें एक परछाईं बनी।परछाईं चल रही थी, लेकिन ज़मीन पर कोई परछाईं नहीं पड़ रही थी —

“वो ट्रेन फिर आने वाली है, आरिफ़”इस बार… या तो तुम सब कुछ जान जाओगे…””या खुद… एक और तस्वीर बन जाओगे।”

आरिफ़ ठहर गया।

उसके सामने सुरंग दो रास्तों में बँट रही थी —एक सीधा, और दूसरा… जहाँ से हल्की सी आवाज़ आ रही थी… जैसे कोई धड़कता हो।

(क्या आरिफ़ उस सही रास्ते को चुन पाएगा? या अतीत की सुरंग उसे भी निगल लेगी?)

धड़कते रास्ते की पुकार

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आरिफ़ ठिठक गया। दोनों रास्तों को टॉर्च से देखा — दाएँ वाला सीधा था, शांत और स्थिर… मगर बाएँ वाला जैसे साँस ले रहा था। वहाँ से आती धड़कनों जैसी आवाज़ उसे खींच रही थी। ये कोई आम आवाज़ नहीं थी — ये दिल की नहीं, किसी जगह की धड़कन थी। जैसे दीवारें ज़िंदा हों… और पुकार रही हों।

“अगर ये एक फँसाने का जाल है…” उसने बुदबुदाकर कहा, “तो मैं फँसने के लिए ही आया हूँ।”

आरिफ़ ने बाएँ रास्ते पर कदम रखा। जैसे ही उसने पहला कदम रखा, दीवारों पर जमी़ं काई ने हल्की हरियाली की चमक दी। हर क़दम के साथ, सुरंग और गीली, और गहरी होती गई। पानी टपकने की आवाज़ अब उसकी टॉर्च की रोशनी में झिलमिलाने लगी थी। लेकिन वहाँ सिर्फ़ पानी नहीं था — कहीं-कहीं मिट्टी में हाथों के निशान भी थे। जैसे किसी ने दीवारें पकड़कर, घसीटकर खुद को आगे खींचा हो।

अचानक एक मोड़ आया। सामने एक पुराना लोहे का दरवाज़ा था — जंग खाया हुआ, मगर बंद नहीं। आरिफ़ ने धड़कते दिल से उसे धक्का दिया। दरवाज़ा चरमराया… और खुल गया।

अंदर एक छोटा सा कमरा था — बिल्कुल बंद, मगर वहां कुछ  रौशनी भी थी। वह रौशनी किसी बल्ब से नहीं आ रही थी… बल्कि वहाँ हवा में तैरती थी। कमरे के बीचों-बीच एक पुराना रिकॉर्ड प्लेयर रखा था, और पास ही एक कुर्सी… जिस पर एक पुतला बैठा था — पर वो पुतला जैसे किसी इंसान की हूबहू नकल था। चेहरा… नीला था।

आरिफ़ की साँसें रुक गईं।

प्लास्टिक या मोम नहीं — वो मानो असली शरीर था… जिसे किसी ने मोमजदा कर रखा हो।

कुर्सी के पास एक डब्बा था — उस पर लिखा था:

“सच सुनने की हिम्मत है तो इसे चलाओ”

आरिफ़ ने काँपते हाथों से रिकॉर्ड प्लेयर का स्विच घुमाया। एक धीमा खरखराता हुआ संगीत उभरा, और फिर एक भारी आवाज़ सुनाई दी —

“अगर तुम ये सुन रहे हो, तो समझो मेरी वक़्त की क़ैद टूट चुकी है। मेरा नाम डैनी है…”

“और मैं उन 43 ग़ायब हुए लोगों में से पहला था।”

“हम सबको एक एक करके बुलाया गया… इस सुरंग ने… इसने हमें चुना, हमारी परछाइयों को खींच लिया। और फिर हमें उन कहानियों में बदल दिया, जो कोई सुनना नहीं चाहता…”

हम ग़ायब नहीं हुए आरिफ़… हम तो बस रोक दिए गए हैं… एक वक़्त में फँसाकर

Youtube video 

… उसी 17 अप्रैल 3:17 पर…

“अगर तुम चाहते हो हमें वापस लाना… तो तुम्हें उस दरवाज़े को खोलना होगा… जो कभी खुला नहीं…”

इतना कहकर रिकॉर्डिंग रुक गई।आरिफ़ की साँस जैसे कुछ पल के लिए थम गई। उस पुराने कमरे में अजीब सी गूंज फैल गई — जैसे दीवारों ने भी वो आवाज़ सुन ली हो।

और फिर… अचानक, वो पुतला — जिसकी काँच सी ठंडी आँखें अब तक वीरान थीं — धीरे-धीरे खुलने लगीं।

आरिफ़ की रगों में सिहरन दौड़ गई। क्या ये पुतला अब सचमुच जाग रहा था?

क्या नीला… अब भी कहीं थी?

क्या ये किसी बीते हुए लम्हे की वापसी थी या किसी छुपे हुए समय-जादू की दस्तक?

और सबसे बड़ा सवाल —

वो दरवाज़ा,

जिसके बारे में हमेशा कहा गया कि वह कभी नहीं खुलता,

क्या वही इस पूरी गुमशुदगी की कुंजी था?

आरिफ़ की आँखों में अब डर नहीं, एक मिशन चमक रहा था।उस दरवाज़े तक पहुँचना होगा…

चाहे रास्ता धड़कते सन्नाटे से

होकर क्यों न गुज़रे…

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