ख़ज़ाने की तलाश part 2. मौत के दरवाज़े पर दस्तक

ख़ज़ाने की तलाश part 2.नक़्शे के पीछे छुपा राज़

ख़ज़ाने की तलाश part 2

सलीम की आँखों में अब भी वो चमक थी जो उसने उस पुराने संदूक़ के अंदर देखे गए नक़्शे को देखकर महसूस की थी। फ़ैज़ अंकल ने अपने काँपते हाथों से नक़्शे को फैलाया, जैसे वो कोई पुराना ज़ख्म हो जो फिर से खुल रहा हो। नक़्शे की स्याही थोड़ी फीकी हो चुकी थी, लेकिन उस पर बने निशान और कोड अब भी साफ़ दिखते थे। कुछ अल्फ़ाज़ अरबी में थे, और कुछ कोड ऐसी भाषा में जिसे सलीम समझ नहीं पा रहा था।

“ये नक़्शा तुम्हारे दादा को एक दरवेश से मिला था,” फ़ैज़ अंकल ने धीमी आवाज़ में कहा, “लेकिन उन्होंने इसे कभी किसी को नहीं दिखाया… सिवाए मेरे।”

सलीम की साँसें तेज़ हो गईं। “लेकिन ये है क्या? और इसमें जो निशान हैं, वो किसी ख़ज़ाने की ओर इशारा कर रहे हैं क्या?”

फ़ैज़ अंकल ने उसकी तरफ़ देखा, जैसे कोई बड़ा रहस्य बताने से पहले सोच रहा हो कि वक़्त ठीक है या नहीं। फिर बोले, “सलीम, ये सिर्फ़ एक ख़ज़ाने का नक़्शा नहीं है… ये एक इम्तिहान है। इसमें जान भी जा सकती है, और मुक़द्दर भी बदल सकता है।”

सलीम की धड़कनें तेज़ हो चुकी थीं। वो अब पीछे नहीं हट सकता था।”क्या तुम इसके लिए तैयार हो?” फ़ैज़ अंकल ने पूछा।

सलीम ने नक़्शे को फिर से देखा, और धीमे से कहा, “अगर ये अब्बू के अधूरे सफ़र को मुकम्मल कर सकता है, तो मैं हर ख़तरा उठाने को तैयार हूँ।”

फ़ैज़ अंकल ने मुस्कुराकर सिर हिलाया। “तो सफ़र आज रात से शुरू होगा… मगर पहले तुम्हें कुछ जानना होगा — वो लोग जो इस ख़ज़ाने के पीछे थे… अब भी ज़िंदा हैं।”

ख़ज़ाने की तलाश part 2.परछाइयाँ जो पीछा नहीं छोड़तीं

ख़ज़ाने की तलाश part 2

रात की सियाही अब गहराने लगी थी। हवेली की खिड़कियाँ तेज़ हवा से काँप रही थीं, और हर दरार से जैसे कोई पुराना राज़ झाँक रहा था। फ़ैज़ अंकल ने नक़्शा मोड़कर उसे लोहे की छोटी संदूक़ में रखा, और सलिम की तरफ़ मुड़ते हुए बोले, “अब जो मैं तुझे बताने जा रहा हूँ, वो कहीं लिखा नहीं — सिर्फ़ ज़िंदा सीने जानते हैं।”

सलिम ने गर्दन हिला दी, लेकिन उसकी आँखों में अब भी सवाल थे।

“तेरे दादा, हाशिम अली… वो इस ख़ज़ाने की तलाश में अकेले नहीं थे,” फ़ैज़ अंकल ने धीमे लहजे में कहा। “ज़हीर भाई, यानी तेरे दादा के बड़े भाई, और मैं — हम तीनों ने मिलकर ये नक़्शा पढ़ने की कोशिश की थी। लेकिन ज़हीर अचानक ग़ायब हो गए। कुछ लोग कहते हैं वो मरे नहीं, बल्के ग़ायब किए गए। “किसने?” सलिम की आवाज़ काँप गई।

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“एक गुट था… ‘साया-ए-सिलसिला’ — एक पुराना गुप्त संगठन। उन्हें यक़ीन है कि इस ख़ज़ाने में ऐसा राज़ है जो हुकूमतें गिरा सकता है, और उन्हें डर है कि अगर ये किसी ग़लत हाथ में चला गया, तो तबाही आएगी।” फ़ैज़ अंकल की आँखें अब भीगी हुई थीं।

सलिम ने एक गहरी साँस ली। “तो क्या हम अकेले नहीं हैं इस तलाश में?“नहीं बेटा,” फ़ैज़ अंकल ने सिर हिलाया। “हम पर नज़र रखी जा रही है। तूने उस बूढ़े भिखारी को देखा था ना, जो हवेली के बाहर हर रोज़ आता है? वो कभी भी भीख माँगते हुए अंदर नहीं झाँकता — उसकी नज़र सिर्फ़ दरवाज़े पर होती है।”

सलिम को अब हर चीज़ साफ़ दिखने लगी थी। उसे ये खेल समझ में आने लगा था — ये सिर्फ़ नक़्शा नहीं, एक जाल था… जिसमें हर क़दम पर परछाइयाँ थीं।

“क्या दरवाज़ा अब भी वहीं है?” सलिम ने पूछा।फ़ैज़ अंकल ने कहा, “हाँ, मगर उसे खोलना आसान नहीं… और एक बार वो खुल गया, तो हम कभी वापस नहीं जा पाएँगे।”

सलिम ने नक़्शे पर हाथ रखा। “तो चलिए मामा… अब रास्ता सिर्फ़ आगे का है।”

ख़ून में भीगे नक़्शे के निशान

ख़ज़ाने की तलाश part 2

हवेली की पुरानी घड़ी ने रात के बारह बजाए। हर घंटी की गूंज मानो वक़्त की रेखाओं को चीरती जा रही थी। सलिम और फ़ैज़ अंकल ने तहख़ाने की सीढ़ियों पर क़दम रखा — वही तहख़ाना जहाँ से ये सारा सिलसिला शुरू हुआ था।

दीवारों पर अब भी वो परछाइयाँ घूम रही थीं, लेकिन अब सलिम का दिल डर से नहीं, हौसले से भरा हुआ था। उसने संदूक़ खोला और नक़्शा बाहर निकाला। जैसे ही उसने उसे ज़मीन पर फैलाया, नक़्शे पर बने कुछ निशान हल्के से चमकने लगे — नीली रोशनी की लकीरें, जो एक रेखा बनाते हुए तहख़ाने की दीवार की तरफ़ इशारा कर रही थीं।

“ये देखो,” सलिम ने धीरे से कहा, “ये रेखा उसी ‘बंद दर’ की ओर जा रही है।फ़ैज़ अंकल ने आँखें सिकोड़ कर देखा। “मगर ये लकीर नक़्शे में पहले नहीं थी…”

“शायद ये तभी उभरती है जब वक़्त सही हो,” सलिम ने कहा।

उन्होंने दीवार की दरारों को टटोलना शुरू किया। तभी एक ईंट अपने आप बाहर निकल आई, और उसके पीछे से लोहे की एक प्लेट झाँकी — उस पर वही कोड उकेरे हुए थे जो नक़्शे पर थे। सलिम ने किताब से एक मंत्र पढ़ा — वो मंत्र जो किताब ने पिछले अध्याय में अपने आप पलट कर दिखाया था।

जैसे ही वो अल्फ़ाज़ हवा में घुले, दीवार में ज़ोर की गड़गड़ाहट हुई। पूरी हवेली एक पल के लिए काँप गई। दरवाज़ा धीरे-धीरे खुलने लगा, और अंदर से एक बेहद ठंडी हवा बाहर आई — जैसे सदियों से बंद रूहें अब आज़ाद हो रही थीं।

अंदर घुप अंधेरा था, लेकिन उस अंधेरे में एक चीज़ चमक रही थी — एक और नक़्शा।मगर ये नक़्शा ख़ून से बना हुआ था। सलिम ने काँपते हाथों से उसे उठाया। उसकी नज़र कोड पर पड़ी, जो किसी नाम की तरफ़ इशारा कर रहे थे…

“ज़हीर”।सलिम की रगों में सर्द लहर दौड़ गई। क्या ये नक़्शा ज़हीर चाचा का था? क्या उन्होंने ही आख़िरी सुराग़ यहाँ छोड़ा था?

और अगर हाँ… तो क्या वो अब भी ज़िंदा थे? या इस तहख़ाने में ही कहीं दफ़्न… इंतज़ार में?

रूह की आवाज़ और बंद सीढ़ियाँ

ख़ज़ाने की तलाश part 2. मौत के दरवाज़े पर दस्तक

नक़्शा हाथ में लेते ही सलिम को ऐसा महसूस हुआ जैसे उसकी उंगलियों में किसी और की साँसें समा रही हों। वो ख़ून, जो सूख चुका था, फिर से गीला महसूस हुआ — और उस नक़्शे की सिलवटों से एक सर्द सिसकी उठी, जैसे किसी रूह ने उसे छुआ हो।

फ़ैज़ अंकल पीछे हट गए। “ये… ज़हीर भाई का है,” उन्होंने काँपती आवाज़ में कहा। “मैं इस लकीर को पहचानता हूँ… वो हमेशा नक़्शों के कोनों पर अपनी एक खास निशानी डालते थे — ये देख, यहाँ।”

सलिम ने ग़ौर से देखा — एक छोटा सा गोल निशान, जिसके अंदर दो तीर एक-दूसरे की उल्टी दिशा में खींचे गए थे।

“ये क्या मतलब होता है?” सलिम ने पूछा।“इसका मतलब है — रास्ता बंद नहीं, मगर उलझा हुआ है।” फ़ैज़ अंकल की आँखों में डर साफ़ झलक रहा था।

नक़्शे के पीछे एक और सुराग़ था — एक जला हुआ कोना, जिस पर लिखा था:”जहाँ दीवार साँस ले, वहाँ ज़मीन बोलती है…”

सलिम ने तुरंत तहख़ाने की फ़र्श पर नज़र डाली। दीवार तो साँस ले चुकी थी, मगर ज़मीन…?उसने आहिस्ता से ज़मीन पर दस्तक दी। एक कोना अलग सी ध्वनि दे रहा था। सलिम ने ईंटें हटाईं — नीचे लकड़ी की पुरानी ढक्कननुमा पट्टी थी।

“फ़ैज़ मामा… ये तो एक और दरवाज़ा है!”ढक्कन को जैसे ही उठाया गया, एक पुरानी सीढ़ी नीचे उतरती हुई दिखाई दी — बिल्कुल अंधेरे में गुम। नीचे से ठंडी हवा के साथ-साथ किसी के बुदबुदाने की आवाज़ आ रही थी।

“सलिम, ये बहुत ख़तरनाक हो सकता है,” फ़ैज़ अंकल ने हाथ पकड़ते हुए कहा।“अगर ज़हीर चाचा नीचे हैं,” सलिम ने धीमे मगर पुख़्ता लहजे में कहा, “तो अब पीछे हटने का कोई मतलब नहीं।”

वो सीढ़ियाँ उतरने लगा — हर क़दम के साथ हवा और भारी होती जा रही थी। नीचे पहुँचते ही एक टिमटिमाता दीया जलता दिखा… और उसके पीछे एक दीवार पर लिखा था:

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“मौत से पहले जो ज़िंदा बचा, वही वारिस कहलाएगा।”सलिम की रूह काँप गई।पर वो रुका नहीं।

अब आगे सिर्फ़ अंधेरा नहीं था — वहाँ एक हक़ीक़त उसका इंतज़ार कर रही थी… जो उसकी दुनिया बदल सकती थी।

दीवार के पीछे जो छुपा था

ख़ज़ाने की तलाश part 2. मौत के दरवाज़े पर दस्तक

सीढ़ियाँ जिस तह तक ले गईं, वहाँ की फिज़ा जैसे वक़्त से परे थी। हर तरफ़ नमी, सन्नाटा, और एक अजीब सी घुटन थी — जैसे सदियों से कोई आवाज़ वहाँ कैद हो। सलिम की आँखें अंधेरे में कुछ ढूँढ रही थीं, और फ़ैज़ अंकल पीछे से हर क़दम पर उसका साथ दे रहे थे।

दीया उठाकर उन्होंने चारों तरफ़ रोशनी फैलानी शुरू की। सामने एक दीवार थी — पत्थर की, मगर उस पर उकेरे गए निशान बिलकुल वैसे ही थे जैसे ज़हीर चाचा के नक़्शे पर। मगर यहाँ एक चीज़ अलग थी — दीवार के बीचोंबीच एक छेद था… और उस छेद में एक जंग लगा हुआ ताबीज़ अटका हुआ था।

सलिम की साँसें तेज़ हो गईं। “ये वही ताबीज़ है… जो मेरे सपनों में जलता है…”उसने हाथ बढ़ाया — लेकिन जैसे ही ताबीज़ को छूने की कोशिश की, ज़मीन कांप उठी। दीवार पर उकेरे गए निशान चमकने लगे और फिर एक तेज़ चीख़ गूँजी — रूह की, लेकिन मानो किसी अपने की।

“वापस जा… जा नहीं सकता तो मरने को तैयार हो जा…” वो आवाज़ दीवार के पीछे से आई थी।फ़ैज़ अंकल ने सलिम को पीछे खींचा, “ये दीवार किसी और चीज़ से बनी है, बेटा। यहाँ सिर्फ़ पत्थर नहीं, रूहों का पहरा है।”सलिम ने ताबीज़ को फिर देखा। “अगर ज़हीर चाचा जिंदा हैं… तो वो इसी दीवार के पीछे हैं।”

वो आगे बढ़ा, और अपनी जेब से वही पुराना ताबीज़ निकाला जो उसे दादा की किताब के बीच मिला था। जैसे ही दोनों ताबीज़ पास आए, उनमें से रोशनी फूटने लगी — और दीवार में दरारें बनने लगीं।

धीरे-धीरे पत्थर पिघलने लगे… और एक तंग रास्ता उभर आया। रास्ते के उस पार एक हल्की नीली रौशनी थी… और उसके बीच कोई खड़ा था।साया… मगर इंसानी आकार में।सलिम की धड़कनें थम गईं। “ज़हीर चाचा…?” उसने पुकारा।

साया हिला — और धीमे से बोला, “तुम आ ही गए…”अब हक़ीक़त और वहम में फ़र्क़ मिटने लगा था।सलिम उस दहलीज़ पर था… जहाँ से पीछे जाना मुमकिन नहीं था।

साया जो इंसान था… या कुछ और?

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सलिम की आँखें उस साये को टकटकी लगाए देख रही थीं। नीली रोशनी में वो साया अब धीरे-धीरे साफ़ हो रहा था। चेहरा झुर्रियों से भरा, आँखें बुझी हुई मगर गहराई लिए हुए… और उस चेहरे में जो बात सबसे डरावनी थी — वो सलिम के अब्बू से मिलती-जुलती थी।

“ज़हीर… चाचा?” सलिम की आवाज़ रुकती-रुकती निकली।साया कुछ क़दम आगे बढ़ा। “तू सलिम है… हाशिम का पोता?” उसकी आवाज़ जैसे रेत से भरी हो, सदीयों की थकान समेटे हुए।

फ़ैज़ अंकल कांपते हुए आगे बढ़े, “ज़हीर भाई… आप ज़िंदा हैं?”ज़हीर की आँखों में एक चमक सी आई — “ज़िंदा तो हूँ, मगर उस तरह नहीं… जैसा तुम सोचते हो।” उसने अपनी छाती की तरफ़ इशारा किया — वहाँ एक ताबीज़ धँसा हुआ था, और उसके चारों ओर जलन के निशान थे।

“मुझे इस जगह ने बाँध रखा है… रूह तो निकली नहीं, जिस्म ने छोड़ना नहीं चाहा। मैं एक फ़रेब बन चुका हूँ — इस ख़ज़ाने का पहला शिकार।”सलिम ने आगे बढ़कर पूछा, “आपको किसने यहाँ बाँधा? और क्यों?”

ज़हीर ने एक थकी हुई मुस्कान दी। “साया-ए-सिलसिला… वो सोचते थे मैं राज़ ज़ाहिर कर दूँगा। उन्होंने मुझे इस दीवार के पीछे क़ैद किया, ताबीज़ से मेरी रूह को बाँधा… ताकि मैं न मर सकूँ, न जी सकूँ।”

फ़ैज़ अंकल की आँखों से आँसू बह निकले। “हमें माफ़ कर दो भाई… हमने तुम्हारी तलाश बहुत देर से शुरू की।”ज़हीर ने सलिम की तरफ़ देखा, “अगर तू यहाँ तक आ गया है, तो अब सिर्फ़ एक रास्ता है — उस दरवाज़े को खोलना जो मेरे पीछे है… मगर याद रख, जो तू ढूँढ रहा है वो सिर्फ़ सोना नहीं — वो एक सच है, जो कई मौतों की वजह बन चुका है।”

सलिम ने ताबीज़ को हाथ में कस लिया।अब ये सिर्फ़ परिवार की कहानी नहीं थी।अब ये एक युद्ध था — सच और फ़रेब के बीच।और सच्चाई तक पहुँचने के लिए… उसे अपना सब कुछ दाँव पर लगाना होगा।

दरवाज़ा जो वक़्त से परे था

ख़ज़ाने की तलाश part 2. मौत के दरवाज़े पर दस्तक

सलिम की साँसें तेज़ थीं, लेकिन उसके इरादे अब पहले से कहीं ज़्यादा मज़बूत। ज़हीर चाचा की थकी हुई आँखों के पीछे छुपे दर्द ने उसकी रगों में एक नई आग भर दी थी।“क्या उस दरवाज़े को खोलने का कोई तरीका है?” सलिम ने पूछा।

ज़हीर ने गर्दन झुकाई। “तरीका है… मगर कीमत भी है। ये दरवाज़ा वक़्त और हक़ीक़त के बीच खड़ा है। इसे वही खोल सकता है जो डर के उस पार देख सके।”फ़ैज़ अंकल ने आगे बढ़कर पूछा, “कौन सी कीमत?”

“जिसने दरवाज़ा खोला, उसकी रूह उस सच से गुज़रेगी। और हर सच, एक ज़ख़्म की तरह होता है — जो या तो तुम्हें आज़ाद करता है, या हमेशा के लिए तोड़ देता है,” ज़हीर ने कहा।

सलिम ने एक पल को आँखें बंद कीं, और फिर धीरे-धीरे ताबीज़ को ज़मीन पर रखा। ज़हीर ने सिर हिलाया, “अब ताबीज़ को दरवाज़े के केंद्र पर रखो — और वही अल्फ़ाज़ दोहराओ जो किताब में लिखे थे, वो जो सिर्फ़ एक बार पढ़ने पर याद रह जाते हैं।”

सलिम ने ताबीज़ उठाया और दरवाज़े की तरफ़ बढ़ा — जो पत्थर से नहीं, बल्कि किसी धुंध से बना दिख रहा था। जैसे कोई परछाईं जम गई हो वक़्त के साथ।उसने ताबीज़ को दरवाज़े के ठीक बीच में रखा और बोला:“हक़ का रास्ता मुश्किल है, मगर छुपा नहीं — दिखे उसे जो सच्चाई से डरे नहीं।”

दरवाज़ा काँप उठा, और चारों तरफ़ की दीवारों में जैसे जान आ गई। ज़मीन हिलने लगी, और एक तेज़ सीटी जैसी आवाज़ फिज़ा में गूँजने लगी। फ़ैज़ अंकल सलिम की तरफ़ दौड़े, मगर ज़हीर ने हाथ बढ़ा कर रोका, “ये सिर्फ़ उसका इम्तिहान है… किसी और का नहीं।”

दरवाज़ा अब धीरे-धीरे खुल रहा था — धुएँ और रोशनी के बीच। और उस रोशनी में… कुछ अजीब था। दीवारों पर पुरानी यादों की परछाइयाँ चलने लगीं — हाशिम अली, जवान ज़हीर, उनके बीच कोई बच्चा — शायद सलिम के अब्बू।

हर परछाईं एक राज़ बताने आई थी। हर याद एक तीर थी — सीधा दिल पर लगती।और फिर, दरवाज़े के उस पार… एक गोल कमरा दिखाई दिया।

कमरे के बीचोंबीच एक चबूतरा था — उस पर एक छोटा सा संदूक रखा था। लेकिन वो संदूक सोने का नहीं था, लकड़ी का था — साधारण, मगर उस पर जो नक़्क़ाशी थी, वो वही थी जो नक़्शे में पहली बार देखी गई थी।सलिम ने धीमे क़दमों से आगे बढ़कर संदूक खोला।अंदर थी एक डायरी।

ज़हीर चाचा ने कहा, “ये तुम्हारे दादा की आख़िरी लिखावट है — इस डायरी में सिर्फ़ ख़ज़ाने का रास्ता नहीं, उसका मक़सद भी लिखा है।”सलिम की आँखों में चमक आ गई।अब वो सोना नहीं ढूँढ रहा था — अब वो हक़ीक़त ढूँढ रहा था।और वो हक़ीक़त… पूरी दुनिया बदल सकती थी।

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