Khazane ki talash part 3 maut ke darwaze par dastak

Khazane ki talash part 3 वो जो लिखा गया मगर पढ़ा नहीं गया

Khazane ki talash part 3 maut ke darwaze par dastak

दीवार के उस पार का कमरा अब पीछे छूट चुका था। फ़ैज़ अंकल और ज़हीर चाचा की आँखों में सैकड़ों सवाल थे, मगर सलिम की नज़रें उस डायरी पर जमी थीं — एक ऐसी पुरानी किताब, जिसकी जिल्द वक्त की आँच में जल चुकी थी, और जिसके कोनों पर रगों की तरह फैली स्याही, किसी दबे हुए राज़ की सिसकियों जैसी महसूस हो रही थी।

किताब जैसे साँस ले रही थी। उसमें दबे पन्ने ऐसे सिहरते थे जैसे किसी ने सदियों से छुआ न हो। सलिम ने धीरे से पहला पन्ना खोला — वहाँ कोई साफ़-सुथरा लिखा नहीं था, बल्कि उभरी हुई लकीरें थीं जो मानो किसी अनदेखी भाषा की धड़कन थीं। गोल-गोल अक्षर, प्रतीक, और कोड, जिनका अर्थ कोई साधारण आँखें कभी नहीं समझ सकतीं।

लेकिन सलिम की आँखों में एक जानी-पहचानी सी चमक थी, जैसे उसने इन्हें पहले भी कहीं देखा हो। किताब ने मानो खुद ही करवट ली। पन्ना अपने आप पलटा और नीचे एक नाम चमका:”अल-हाफ़िज़ बिन सालिम” — सन 1126 ई.

सालिम का दिल धक-धक करने लगा। ये नाम उसके लिए कोई नया नहीं था। बचपन में अब्बू ने एक बार कहा था — “हमारी नस्ल में एक था, जिसने खज़ाने को दुनिया से बचाया, और एक दिन फिर कोई आएगा जो उसे दुनिया के लिए खोलेगा।” तब सलिम ने हँसकर बात टाल दी थी, लेकिन आज उस बचपन की बात में इतनी गहराई लग रही थी कि रूह काँप उठी।

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डायरी दरअसल ख़ज़ाना नहीं थी — वो एक गुप्त दस्तावेज़ थी। एक ऐसी किताब, जो समय की परतों में छिपे उस सच को दिखा रही थी जिसे इतिहास की किताबों ने कभी बताया ही नहीं। उसमें दस्तावेज़ थे सल्तनतों की गिरावट के, गद्दारों के नाम, उन शहीदों की कहानियाँ जो इतिहास से मिटा दिए गए।

हर पन्ना, हर शब्द एक नया रहस्य खोलता जा रहा था। जैसे कोई खुफ़िया फिल्म चल रही हो, जिसमें किरदार सलिम खुद बनता जा रहा था। उस डायरी में लिखा था कि एक समय था जब “साया-ए-सिलसिला” नाम का संगठन वजूद में आया — एक ऐसा समूह जिसने दुनिया को झूठ के पर्दे में रख कर अपनी ताक़त बनाई। उन्होंने हर उस इंसान को मिटा दिया जो सच बोलने की हिम्मत करता था।

और अब… वही दस्तावेज़ सलिम के हाथ में थे। डायरी में दर्ज पंक्तियों में एक चेतावनी थी:”अगर ये सच कभी गलत हाथों में चला गया, तो इंसानियत खुद को पहचान नहीं पाएगी।”

सलिम के हाथ काँपने लगे, लेकिन उसके अंदर कुछ और भी जाग उठा था — एक जुनून, एक ज़िम्मेदारी। उसे अब समझ आ गया था कि ये खज़ाना किसी महल की दीवारों में बंद नहीं था — ये वो हक़ीक़त थी जो अगर सामने आई, तो इतिहास का रास्ता ही बदल जाएगा।

Khazane ki talash part 3 जब अतीत के पाँव लौटते हैं

Khazane ki talash part 3 maut ke darwaze par dastak

डायरी पढ़ते-पढ़ते जैसे ही सलिम और फ़ैज़ अंकल तहख़ाने से बाहर निकले, हवेली के आँगन में अंधेरे की परत कुछ ज़्यादा गहरी महसूस हुई। चाँद का रंग भी धुँधला हो चला था, जैसे वो खुद भी इस रहस्य से डरा हुआ हो। हवेली की हवाओं में सन्नाटा नहीं, एक घुटन थी — जैसे कोई साँस ले रहा हो पास ही, मगर दिख नहीं रहा।

और तभी एक परछाईं धीरे-धीरे सामने आई — एक बूढ़ा, झुका हुआ इंसान… वही जो हर रोज़ हवेली के बाहर बैठा भीख माँगता था। उसका लिबास फटा हुआ था, आँखों में धूल और चेहरे पर थकावट की परतें। लेकिन आज उसकी आँखों में भीख नहीं, बंदूक की नोक चमक रही थी।

“बहुत दूर आ गए हो, सलिम… लेकिन अब ये सफ़र यहीं ख़त्म होगा,” उसकी आवाज़ खुरदरी थी, जैसे रेत चबा रही हो।फ़ैज़ अंकल ने चौंक कर कहा, “राशिद…? तू तो…”

“हाँ, मैं वही राशिद हूँ… जिसे ज़हीर को ग़ायब करने भेजा गया था… और अब सलिम की बारी है,” उसने गर्दन झुकाई और जेब से वही ताबीज़ निकाला — टूटा हुआ, मगर चमकता हुआ। वही ताबीज़ जो सलिम के वालिद की मौत के बाद ग़ायब हो गया था।”साया-ए-सिलसिला अब भी ज़िंदा है,” राशिद गुर्राया। उसकी आँखों में अब इंसान नहीं, एक मशीन बोल रही थी — जो सिर्फ़ आदेशों पर चलती है।

सलिम पीछे हटने ही वाला था कि हवा में एक आवाज़ गूँजी — “राशिद, अब बहुत हो गया…” और एक साया पीछे से उभरा — ज़हीर चाचा। उनके कपड़े धूल से सने थे, लेकिन आँखों में वो चमक थी जिसे मौत भी नहीं मिटा सकती।

लेकिन ये आम लड़ाई नहीं थी। ये टकराव था दो रास्तों का — एक जो झूठ को क़ायम रखना चाहता था, और दूसरा जो हक़ को उजागर करना चाहता था।

राशिद ने गोली चलाने को उंगली ट्रिगर पर रखी, लेकिन सलिम अब काँप नहीं रहा था। उसने डायरी उठाई, और उसकी आवाज़ में पहली बार एक ऐसी गूँज थी जो सदियों से किसी उत्तराधिकारी की तलाश में थी।

“मैं वो हूँ जिसे तुम्हारा साया छू नहीं सकता। ये किताब अब नहीं जलेगी, ये सच्चाई अब नहीं दबेगी।”

जब सच्चाई इंसानियत का इम्तिहान बन जाए

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सलिम की आवाज़ में एक ऐसी गूँज थी, जो किसी एक इंसान की नहीं, सदियों से दबे हुए सच की पुकार थी। हवेली की दीवारें काँप उठीं — जैसे पत्थर भी अब इस झूठ के बोझ से थक चुके थे। राशिद की उँगली अब भी ट्रिगर पर थी, लेकिन उसका हाथ काँपने लगा। ज़हीर चाचा ने धीमे क़दमों से पास आकर कहा:

“तू सिर्फ़ एक प्यादा नहीं है, राशिद… तुझमें अब भी इंसान बाकी है।”राशिद की आँखें कुछ पल के लिए भीगीं — जैसे किसी पत्थर ने पहली बार बारिश महसूस की हो। उसने हथियार नीचे रखा। और उसी पल, हवेली की ज़मीन एक बार फिर गहराई में धँसने लगी। दीवारों पर उभरे रहस्यमयी अक्षर जलने लगे — जैसे डायरी की जान अब जाग चुकी हो।

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डायरी का आख़िरी पन्ना खुला।कोई नक्शा नहीं था, कोई खज़ाना नहीं…बल्कि एक कोड था — न वक्त का, न ज़मीन का… बल्कि इंसान के ज़मीर का।ज़हीर चाचा की आवाज़ कांपती मगर सच्ची थी:

“ये सिर्फ़ दस्तावेज़ नहीं है, सलिम… ये एक आइना है। अगर इसे दुनिया ने देखा, तो या तो खुद को बदल देगी… या खुद को मिटा देगी।”उसी पल कहीं दूर — एक अंधेरे कमरें में, स्क्रीन की रौशनी में छिपे चेहरों ने वो कोड रिसीव किया।

साया-ए-सिलसिला के असली सरगना अब जाग चुके थे।“तो उत्तराधिकारी जाग गया है…”“अब वक्त है आख़िरी चाल का…”लेकिन सलिम के सामने अब दो रास्ते थे —या तो इस किताब को दुनिया के हवाले कर दे,या फिर उसे तब तक छिपाए रखे, जब तक इंसान सच के लिए तैयार न हो जाए।

फ़ैज़ अंकल ने धीरे से पूछा, “क्या अब हम इसे सबको दिखा देंगे?”सलिम चुप रहा। फिर उसने वो डायरी अपने हाथों में ली, और धीरे से बोला:“नहीं… दुनिया अब भी सच्चाई से डरती है। ये किताब हथियार नहीं बनेगी — ये आइना बनेगी। जब लोग खुद को पहचानने के लिए तैयार होंगे… तभी ये खुलेगी।”

उसने डायरी को हवेली के उसी गुप्त तहख़ाने में रखा, जहाँ से उसकी रोशनी बाहर नहीं जा सकती थी — अभी नहीं।ज़हीर चाचा मुस्कुराए, जैसे कोई ऋषि अपने उत्तराधिकारी को आशीर्वाद दे रहा हो।राशिद एक कोने में खड़ा था, आँखों में पश्चाताप और दिल में एक नया युद्ध।

सलिम ने आख़िरी बार डायरी पर हाथ रखा और कहा:“अब ये सच्चाई मेरे कंधों पर नहीं… इंसानियत की आत्मा पर है।”दीवार फिर से बंद हो गई।मगर इस बार वो सिर्फ़ ईंटों से नहीं बनी थी —वो उम्मीद से, वक़्त से, और एक ऐसे वादे से बनी थी जो कभी मिटाया नहीं जा सकेगा।

आखिरी चाल शुरू हो चुकी है

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दीवार फिर से बंद हो चुकी थी। हवेली की ज़मीन अब शांत थी, मगर उसके नीचे कुछ धड़क रहा था — जैसे कोई अलार्म दबा हो। सलिम ने डायरी को फिर से दुनिया की निगाहों से छिपा दिया था, लेकिन अब वो सिर्फ़ एक दस्तावेज़ नहीं रही थी। वो एक संपूर्ण विचार बन चुकी थी — एक ऐसी सच्चाई, जो सिर्फ़ पढ़ने के लिए नहीं थी, बल्कि जीने और बचाने के लिए थी।

उसने तहख़ाने से ऊपर आते वक़्त आख़िरी बार मुड़कर देखा। हर ईंट, हर निशान, हर साया अब उसे पहचानता था — जैसे हवेली का हर ज़र्रा कह रहा हो, “अब तू ही वारिस है…”रात की हवा भारी थी। आसमान पर तारे वैसे ही थे, मगर उनमें से एक — हल्की नीली रोशनी — लगातार टिमटिमा रहा था। सलिम को याद आया: डायरी में एक जगह लिखा था,

“जब आसमान नीला रोए, समझना साया अपनी आँखें खोल चुका है…”उसी पल, कहानी कहीं और भी जाग रही थी।दमिश्क के एक पुराने स्कूल में, एक अधेड़ उम्र की औरत ने एक अलमारी खोली — अंदर वही पुराना प्रतीक चमक रहा था जो डायरी में उभरा था। उसने टेलीफोन उठाया:

“वो जाग चुका है। अल-हाफ़िज़ की विरासत लौट आई है।”ओर वहीं दूसरी ओर रोम के एक भूमिगत तहख़ाने में, आठ चेहरों की एक गुप्त बैठक हो रही थी — साया-ए-सिलसिला का केंद्रीय मंडल। हर चेहरा नकाब में था, मगर उनकी आवाज़ें सदियों पुराने भय से लिपटी थीं।

“वो लड़का डायरी तक पहुँच गया,” एक ने गुर्राया।“क्या वो जानता है कि इसका अर्थ क्या है?” दूसरे ने पूछा।“नहीं, लेकिन जल्द ही जान जाएगा। और तभी… उसे मिटाना होगा।”

बर्लिन, इस्तांबुल, काहिरा और लखनऊ — हर जगह एक हलचल शुरू हो चुकी थी। साया-ए-सिलसिला के “स्लीपर एजेंट्स” सक्रिय किए जा चुके थे। कुछ नेता, कुछ वैज्ञानिक, कुछ शिक्षक — वो सब जो समाज की सोच को आकार देते थे, अब एक नई रणनीति का हिस्सा थे।

पर सबकुछ उनके क़ाबू में नहीं था।कहीं एक और साया जाग चुका था — राशिद।अब वो गुमनाम नहीं था। उसने अपने गुनाहों का बोझ उठाते हुए एक मिशन शुरू किया — डायरी की रक्षा का मिशन। उसे साया-ए-सिलसिला के अंदर की कई बातें मालूम थीं — और अब वो उन्हें सलिम तक पहुँचाने के लिए निकला था।सलिम ने हवेली छोड़ी नहीं थी, मगर अब उसके कमरे में नक्शे बिछ चुके थे — इतिहास के, ज़ेहन के, और ज़मीर के।

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उसने दीवार पर एक शब्द लिखा: “तैयारी”ज़हीर चाचा धीरे से बोले, “अब तू अकेला नहीं है, बेटा… अब ये सफ़र सिर्फ़ सच का नहीं, सब्र और सूझ बुझ का भी होगा।”सलिम ने जवाब दिया:”अब जो शुरू हुआ है, वो साज़िश नहीं… यह बात साफ है। अब आख़िरी चाल शुरू हो चुकी है — और इस बार चाल हमारी होगी।”

जहाँ नक़ाब उतरने लगते हैं

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रात के सन्नाटे में हवेली के भीतर मोमबत्तियों की लौ अब और स्थिर नहीं थी। सलिम अकेला नहीं था, मगर जो रास्ता उसने चुना था, उसमें अकेलापन लाज़मी था।

राशिद अब फिर से उस दरवाज़े के सामने खड़ा था, जहाँ पहली बार उसने साया-ए-सिलसिला के लिए वफ़ादारी की थी — मगर इस बार उसकी आँखों में नफ़रत नहीं, पछतावे और सच्चाई का बोझ था।

एक कोड, एक सील, एक जुर्माना — उसने भीतर घुसते वक़्त तीनों को पार किया। अब वो वहीं खड़ा था जहाँ ‘साया’ का असली दिमाग़ बैठता था — और वहाँ एक चेहरा उसका इंतज़ार कर रहा था।”देर कर दी, राशिद,” वो चेहरा बोला — झुर्रियों में लिपटी चालाकी के साथ।

“सच तक पहुँचने में देर लगती है… लेकिन अब मैं अकेला नहीं हूँ,” राशिद ने कहा और मेज़ पर एक छोटी सी पेंड्राइव रख दी।उस पेंड्राइव में साया-ए-सिलसिला की सदियों पुरानी योजनाओं की पूरी रूपरेखा थी — मीडिया नियंत्रण से लेकर, शिक्षा में प्रोग्रामिंग और विश्व नेताओं को काले राज़ों से बाँधने तक।

उधर हवेली में, सलिम ने अब डायरी के शब्दों को फिर से पढ़ना शुरू किया। मगर हर बार शब्द बदल जाते। गोया ये किताब अब किताब नहीं, जवाब देने वाला एक ज़िंदा ज़मीर बन चुकी थी। हर सवाल, हर डर, हर शक का जवाब देने को तैयार। ज़हीर चाचा ने एक बार पूछा,

“क्या तू वाक़ई इस सच्चाई को बाहर लाने के लिए तैयार है?”सलिम बोला,”मैं नहीं जानता लोग सच को सुनना चाहेंगे या नहीं… पर मैं अब झूठ के साथ नहीं जी सकता।”और उसी पल राशिद हवेली में दाख़िल हुआ — थका हुआ, घायल, मगर ज़िंदा।

उसने पेंड्राइव सलिम को सौंप दी।”इसमें वो सब कुछ है जो कभी तुमसे छीन लिया गया था। वो नाम, वो चेहरे, वो वजह… सब।” सलिम ने पेंड्राइव को डायरी के पास रखा — और दोनों की ऊर्जा एक साथ गूंजने लगी। जैसे इतिहास और भविष्य, पहली बार एक ही कमरे में सांस लेने लगे हों।

लेकिन कहानी यहाँ थमती नहीं। साया-ए-सिलसिला को पता चल चुका था कि जानकारी लीक हो चुकी है।रोम, काबुल, और दिल्ली में अचानक कुछ फ़ाइलें जलने लगीं। कुछ लोग लापता हुए।

साया अब बौखला चुकी थी।और तब उन्होंने खेला अपना सबसे ख़तरनाक पत्ता — सलिम की माँ की तस्वीर हवेली की सीढ़ी पर रखी मिली… और एक पर्ची:”अब तुझे अपनी जड़ें खोनी होंगी… अगर तूने साया की जड़ों तक पहुँचना चाहा।”सलिम की साँसें थम गईं। वो शख़्स जो अब तक सच्चाई की राह पर था, उसे अब भावनाओं का सबसे गहरा इम्तिहान देना था।

क्या वो साया को उजागर करने के लिए अपनी माँ की सुरक्षा दांव पर लगाएगा? क्या इंसानियत का भविष्य, एक बेटे की ममता पर भारी पड़ेगा? ज़हीर चाचा ने बस इतना कहा:

“सच कभी आसान नहीं होता, सलिम… लेकिन एक दिन यही सच सबको आज़ाद करेगा।”सलिम ने जवाब नहीं दिया। उसने डायरी को फिर से उठाया — और पहली बार, किताब का एक पन्ना अपने आप पलट गया।

उस पन्ने पर लिखा था: अगर सच्चाई का रास्ता दर्द से गुज़रता है… तो समझना, तुम सही दिशा में हो।”

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