43 gayab hote logon ki kahani Part 6 भागने का रास्ता — या मौत का फंदा?
आरिफ़ के पसीने की बूँदें अब ठंडी नहीं थीं — उनमें डर नहीं, अब इरादा था। वेंटिलेशन शाफ़्ट पर लिखा वो संदेश — “भाग… जब तक नाम नहीं खुदा” — जैसे किसी भूले हुए शख्स की आख़िरी उम्मीद हो, जो ज़िंदा रहकर भी दुनिया से मिटा दिया गया था।
उसने एक गहरी साँस ली और धीमे-धीमे उस शाफ़्ट की pओर बढ़ा। प्लेटफ़ॉर्म पर लगी मशीन अब सक्रिय हो चुकी थी — उसमें से नीली रौशनी की तड़कती लकीरें फर्श पर फैल रही थीं, जैसे कह रही हों, “देर मत कर… या देर हो जाएगी।”
शाफ़्ट छोटा था, लेकिन उसके भीतर रेंगना मुमकिन। उसने अपना बैग फेंका और घुटनों के बल झुककर अंदर सरका। शाफ़्ट के भीतर दम घुटने वाली बदबू थी — लोहे, सीलन और कुछ और का मिश्रण… जो इंसानी नहीं लगता था। पीछे से वो आवाज़ एक बार फिर आई — अब और पास, और चेतावनी देती हुई:
“तू सोचता है ये भागना है? ये सिर्फ़ एक और परत है। यहाँ कोई नहीं बचता, आरिफ़ अहमद…लेकिन आरिफ़ अब रुकने वाला नहीं था।शाफ़्ट के अंदर रेंगते हुए उसे दीवारों पर अजीब नक़्शे और शब्द दिखे — कुछ उर्दू में, कुछ अरबी में, और कुछ ऐसी लिपि में जिसे उसने कभी देखा नहीं था। एक जगह लिखा था:
“जो बाहर गया, वो अंदर ही रहा।अचानक, शाफ़्ट नीचे की ओर झुक गया — और उसका शरीर खिसकता हुआ एक गहराई में गिर गया। धप्प।
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उसने आँखें खोलीं तो खुद को एक गोलाकार कक्ष में पाया — चारों ओर दर्पण लगे थे। लेकिन इन दर्पणों में उसका चेहरा नहीं, 43 अलग-अलग चेहरे दिख रहे थे — हर एक वो इंसान जो कभी ग़ायब हुआ था। और हर चेहरा उसे देख रहा था।
फिर उन सभी चेहरों ने एक साथ कहा: तू पहुँचा कहाँ है, आरिफ़? उसने घबरा कर आँखें बंद कर लीं… और जब खोलीं, तो कक्ष की दीवारें पिघलने लगी थीं। जैसे पूरा स्थान उसकी चेतना से बना हो, और वो अब अपने अंदर फँस चुका हो।
और तभी — एक दरवाज़ा खुला, बिल्कुल सामान्य दरवाज़ा जैसे किसी घर का पिछवाड़ा हो। बाहर धूप थी। पक्षियों की आवाज़ थी। गाड़ियों की हलचल थी। क्या ये सच था?
क्या उसने वाकई बाहर का रास्ता पा लिया? या ये सिर्फ़ अगला फंदा था… एक और परत?उसने पैर बढ़ाया — दरवाज़े के बाहर क़दम रखा… और तभी पीछे से वो जानी-पहचानी, खोखली सी आवाज़ आई: बधाई हो… अब तू 44वाँ गवाह है।दरवाज़ा अपने आप बंद हो गया।
43 gayab hote logon ki kahani Part 6 गवाह या क़ैदी — आरिफ़ अब किसका हिस्सा है?
दरवाज़ा बंद हुआ, तो लगा जैसे पूरी दुनिया ने साँस रोक ली हो। बाहर सब कुछ सामान्य था — वही शहर, वही सड़कें, वही गाड़ियाँ, वही लोग। लेकिन आरिफ़ जानता था… कुछ बदल गया था।
उसने जेब से अपना मोबाइल निकाला — नेटवर्क आ रहा था। घड़ी चल रही थी। यहाँ तक कि उसकी कॉल लॉग में वो सारे नंबर थे जो वो पहले इस्तेमाल करता था। लेकिन एक नंबर गायब था — नीला का। उसने राह चलते एक आदमी से पूछा, “माफ़ कीजिए, ये सड़क किस इलाके में आती है?”
वो आदमी मुस्कराया, “तुम ठीक हो ना? ये तो… ब्लॉक A की गली नंबर 3 है, वही जहाँ नीला का घर है।आरिफ़ के दिल में कुछ धड़कनें तेज़ हो गईं। “नीला? आप उसे जानते हैं?”
आदमी ने सिर हिलाया, “नीला? कौन नीला? आरिफ़ की आँखें फैल गईं। वो आगे बढ़ा, घरों की ओर। नीला के पुराने घर के सामने जाकर रुका — वहाँ अब किसी और का नाम था। दरवाज़ा नया था। घंटी दबाई — एक अधेड़ महिला ने दरवाज़ा खोला।नीला रहती थीं यहाँ… कुछ साल पहले…” आरिफ़ बुदबुदाया।
महिला ने उसका चेहरा गौर से देखा, “बेटा, मैं यहाँ पिछले 25 साल से रह रही हूँ। इस नाम की कोई लड़की यहाँ कभी नहीं रही। आरिफ़ पीछे हट गया। उसके कदम लड़खड़ाए। वो सोचने लगा — क्या ये दुनिया असली है? या ये भी उसी ‘सिस्टम’ का हिस्सा है जिसने 43 औरों को निगला?
तभी उसे अपनी जेब में कुछ अजीब सा महसूस हुआ। उसने हाथ डाला… और उसके हाथ में एक चाबी निकली। एक लोहे की चाबी — वैसी ही जैसी उस आकृति के सीने में जड़ा ताला था। उस पर एक नंबर खुदा था — “45”।
उसके होठों से एक फुसफुसाहट निकली, “पर… मैं तो 44वाँ था। तभी उसके फोन में नोटिफिकेशन आया:”नया कांटैक्ट सेव्ड: सबा मिर्ज़ा” सबा? कौन? कांपते हाथों से उसने उस नंबर पर कॉल की। उधर से एक लड़की की आवाज़ आई — शांत, मगर बेहद जानी-पहचानी:
“हैलो आरिफ़… तुम्हें वहाँ से वापस लाया गया है, लेकिन अब तुम अकेले नहीं हो। अगला दरवाज़ा तुम्हें खोलना होगा — वरना जो हमने झेला… वही अब तुम झेलोगे।”
फोन कट गया।आरिफ़ की आँखों के सामने अब पूरा सिस्टम, पूरा जाल फिर से घूमने लगा — 43 गायब हुए लोग, हर एक के पीछे कोई दरवाज़ा, कोई गवाह, कोई चाबी… और अब उसकी जेब में 45वीं चाबी।अब वो भाग चुका नहीं था — वो चुना गया था।और शायद अगली गुमशुदगी… अब उसी के हाथों होने वाली थी।
आरिफ़ की भूमिका शिकारी या शिकार?
आरिफ़ अब तेज़ी से चल रहा था — मगर उसे नहीं पता था कि कहाँ जा रहा है। जिस दुनिया में वह लौटा था, वहाँ सब कुछ वैसा ही था, सिर्फ़ वह वैसा नहीं रहा था।
हर चेहरा जिसे वह देखता, उसे संदेहास्पद लगता। हर मुस्कान में छुपा डर, और हर साए में कोई निगरानी महसूस होती। उसे लगने लगा था कि जैसे शहर अब एक बड़ी जेल है — और हर गली एक और सुरंग की शुरुआत।
घर पहुँचा तो दरवाज़ा खुला मिला — ऐसा पहली बार हुआ था। भीतर घुसा, सबकुछ सामान्य था, लेकिन उसकी टेबल पर एक पार्सल रखा था। बिना नाम का।
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उसने धीरे से उसे खोला — अंदर एक छोटी सी फाइल थी। ऊपर लिखा था:टारगेट: सबा मिर्ज़ा”स्थिति: ट्रैक की जा रही है स्थिति: जागरूक”
आरिफ़ की साँसें जैसे रुक गईं। क्या अब वो सिस्टम का हिस्सा बन गया था? क्या उसकी भूमिका अब गवाह से बदलकर क्रियान्वयनकर्ता बन चुकी थी?
उसी पल उसका मोबाइल फिर बजा। एक अनजान नंबर। उसने झिझकते हुए कॉल उठाया।
उधर से वही आवाज़ — सबा की।तुम्हें चाबी दी गई है, आरिफ़। लेकिन सवाल ये नहीं कि अगला दरवाज़ा कौन खोलेगा… सवाल ये है कि क्या तुम उसके पीछे से लौट पाओगे?”
आरिफ़ चुप रहा।“मैं जानती हूँ कि अब तुम्हें चुन लिया गया है,” सबा की आवाज़ थरथरा रही थी, “लेकिन तुम अब भी फ़ैसला ले सकते हो — तुम अगली गुमशुदगी बन सकते हो… या अगली रिहाई का रास्ता।”
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फोन कट गया।आरिफ़ की नज़र अब फाइल पर गई। अंदर एक और पेज था — एक नक्शा। उसमें एक पुरानी इमारत को गोल घेरे में दिखाया गया था। वही इलाका जहाँ से सबसे ज़्यादा लोग ‘ग़ायब’ हुए थे। नक्शे के नीचे एक ही शब्द लिखा था:
“शून्य”शायद वहाँ से सब शुरू हुआ था। शायद वही ‘0वाँ नाम’ था।आरिफ़ ने फाइल बंद की। जेब में रखी 45 नंबर की चाबी को देखा।
अब फ़ैसला उसके हाथ में था —क्या वह सबा को ढूंढेगा, उसे चेतावनी देगा…या दरवाज़ा खोलेगा, और उसे अगली कड़ी बना देगा?वो कुर्सी पर बैठ गया, सिर दोनों हाथों में थाम लिया।कमरे में सन्नाटा था… लेकिन कहीं बहुत दूर, उसके मोबाइल की स्क्रीन पर एक और नोटिफिकेशन उभरा:अगली खिड़की खुल रही है — 3 मिनट शेष।”
शून्य — जहाँ सब कुछ शुरू हुआ
आरिफ़ अब उस इमारत के सामने खड़ा था — वही जो नक्शे में घेरे में थी। बाहर से देखकर यह कोई आम सी, जर्जर और वीरान फैक्टरी लगती थी, लेकिन उसकी दीवारें चुपचाप कुछ छुपा रही थीं। दरवाज़े पर ताले नहीं थे। कोई सिक्योरिटी कैमरा नहीं। कोई बोर्ड नहीं। और सबसे अजीब — वहाँ कोई साया तक नहीं।
उसने जेब से 45 नंबर की चाबी निकाली। दरवाज़े के एक कोने में एक छोटी सी जाली थी — उसमें ताला लगा था। जैसे ये ताला सिर्फ़ उसी के लिए बनाया गया हो।चाबी घुमाते ही भीतर एक धीमी-सी गूंज उठी — जैसे इमारत ने उसकी मौजूदगी को पहचान लिया हो। दरवाज़ा धीरे से खुला… और अंधेरे ने उसे निगल लिया।
भीतर सब कुछ बदला हुआ था। दीवारों पर दस्तावेज़ थे — पुराने काग़ज़, चित्र, नक़्शे और उन चेहरों की फोटोज़ जिनके नाम अब इतिहास से मिटा दिए गए थे। फर्श पर एक वृत्त बना था — उसके चारों ओर 44 नाम खुदे थे। हर नाम के पास एक लोहे की कील गड़ी थी। और बीच में… कुछ भी नहीं।
“तो यही है शून्य,” आरिफ़ फुसफुसाया।तभी पीछे से एक हल्की सी आहट हुई। उसने मुड़कर देखा — वहाँ एक और इंसान खड़ा था। काला ओवरकोट, चेहरा धुँध में छुपा… मगर आवाज़ जानी-पहचानी थी:
“कह दिया था ना, हर गवाह… आखिर में गेटकीपर बनता है।तुम…?” आरिफ़ आगे बढ़ा, “तुम तो मरे हुए थे! मरा नहीं था… गुम था। जैसे सब हुए हैं। जैसे तुम हो गए हो।उस अजनबी ने हाथ आगे बढ़ाया — उसके हाथ में 46 नंबर की चाबी थी।
अब ये तुम पर है, आरिफ़। एक और दरवाज़ा खुलेगा… या आख़िरकार, ये चक्र टूटेगा।आरिफ़ के दिमाग़ में सबा की आवाज़ गूंज रही थी, “तुम अगली गुमशुदगी बन सकते हो… या अगली रिहाई का रास्ता।”
उसने अपने पैरों के नीचे वृत्त देखा — 44 कीलों के बीच, वो खड़ा था। वो समझ गया — 45वाँ नाम उसका है। लेकिन अब उससे एक चूक नहीं होने वाली थी। वो मुड़ा, उस अजनबी की ओर देखा और बोला,
अगर मैं गेटकीपर बनूं… तो दरवाज़ा अब से सिर्फ़ बंद रहेगा।अजनबी मुस्कराया। तो फिर शून्य से बाहर निकलने की हिम्मत रखो, आरिफ़… क्योंकि शून्य सिर्फ़ एक जगह नहीं — एक निर्णय है।”
और तभी पूरा कमरा काँपने लगा। दीवारों से सारे काग़ज़ उड़ने लगे। वृत्त की कीलें एक-एक कर बाहर निकलने लगीं। और फर्श के बीच से एक नया दरवाज़ा प्रकट हुआ — उस पर लिखा था:रिलीज़ प्रोटोकॉल: मैन्युअल ट्रिगर”
आरिफ़ ने दोनों चाबियाँ — 45 और 46 — अपनी दोनों हथेलियों में पकड़ीं। दरवाज़ा सामने था। अब फ़ैसला उसे करना था —गेटकीपर बने, या ब्रेकर।
अंतिम विकल्प तोड़ना या निभाना?
आरिफ़ ने दोनों चाबियाँ देखीं — 45 और 46 ,
45 उसके नाम की तरह चुपचाप थी — बोझिल, उत्तरदायी।46 किसी और का प्रतिनिधित्व करती थी — शायद अगले को, शायद सबा को… या शायद उसे जो कभी आरिफ़ था।रिलीज़ प्रोटोकॉल: मैन्युअल ट्रिगर” — उस दरवाज़े पर उकेरे ये शब्द कोई टेक्निकल गाइडलाइन नहीं थे। ये एक चेतावनी थे। एक द्वार था… पर बाहर का नहीं — भीतर का।
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अचानक एक अजीब सी गूंज पूरे कमरे में फैलने लगी — जैसे किसी ने एक सुर छेड़ा हो, जो हर दीवार से टकराकर खुद को दोहरा रहा हो। आरिफ़ के कानों में पुरानी आवाज़ें लौटने लगीं — नीला की हँसी, सबा की चेतावनियाँ, उस शख़्स की बड़बड़ाहट जिसने कहा था, “तू सोचता है ये भागना है? ये सिर्फ़ एक और परत है।”
आरिफ़ ने एक क़दम आगे बढ़ाया। दरवाज़े के पास एक स्कैनर था — मगर हाथ या चेहरे के लिए नहीं… वहाँ सिर्फ़ “चाबी” फिट हो सकती थी। उसने पहले 45 नंबर की चाबी स्कैनर में डाली। स्क्रीन पर लिखा आया:
“Access Accepted — Subject: Witness → Gatekeeper” कमरे की रोशनी बदल गई। एक हल्की सी धड़कन जैसी कंपन ज़मीन से उठी — जैसे धरती ने पलके झपकाईं। अब 46 की बारी थी।
आरिफ़ रुका।उसने 46 नंबर की चाबी को अपनी हथेली में कस कर पकड़ा। ये कोई और की चाबी नहीं थी — ये विकल्प की चाबी थी। चक्र तोड़ने की।अगर वो इसे लगाता… तो क्या सब कुछ शून्य में समा जाता?
या वो खुद शून्य बन जाता?अचानक… उसके पीछे से एक आवाज़ आई — बहुत धीमी, लगभग साँसों जैसी:“अगर तू दरवाज़ा बंद करेगा… तो सब वहीं रहेंगे जहाँ हैं।अगर तू दरवाज़ा तोड़ेगा… तो तू कभी वापस नहीं आएगा।”
आरिफ़ ने एक लंबी साँस ली।आँखें बंद कीं।और फिर…उसने 46 नंबर की चाबी तोड़ दी।वो चाबी जैसे मोम की थी — टुकड़े ज़मीन पर गिरे, और उसी पल पूरा कमरा थर्रा उठा।दरवाज़े के स्क्रीन पर संदेश बदल गया:
“Loop Interrupted. Gatekeeper Override Failed.“System Collapse: Manual Initiation Detected.“Releasing all identities…”
दीवारों से लगी 44 कीलें ज़ोर की आवाज़ के साथ बाहर निकलीं और पत्थर पर गिरे नामों को चीरने लगीं। हर नाम से एक उजाला फूटा — और हर चेहरा जो गायब हुआ था… अब एक-एक कर वहाँ प्रकट होने लगा।
नीला… सबा… और कई वो चेहरे जिनका कोई इतिहास नहीं बचा था — अब वे सब वहीं थे।आरिफ़ अब उनके बीच नहीं था।वो… कहीं और चला गया था।या शायद, कहीं गहरा उतर गया था।लेकिन उससे पहले, दीवार पर आख़िरी बार एक शब्द उभरा —शून्य अब शून्य नहीं रहा।”