gayab hote logo ki kahani शहर-ए-ख़ामोशी – एपिसोड 1
कभी-कभी शहर सोते नहीं, बस उनकी आवाज़ें दबा दी जाती हैं।”❝ इस शहर में ग़ायब लोग कभी लौटते नहीं… और जो लौटते हैं, वो पहले जैसे नहीं होते। ❞कुछ शहर होते हैं जो अपनी नींद में भी जागते हैं। जहाँ दिन चुपचाप बीतते हैं और रातें फुसफुसाहटों से भरी होती हैं। जहाँ हर दीवार के पीछे एक राज़ छुपा होता है, और हर गली के मोड़ पर एक डर साँस लेता है। ऐसा ही एक शहर था—शहर-ए-ख़ामोशी।
यह शहर न तो मानचित्रों में खास था, न ही इतिहास की किताबों में। मगर इसकी गलियों में कुछ ऐसा था जो देखने वालों की आँखों से नहीं, बल्कि उनकी आत्मा से चिपक जाता था। यहाँ सन्नाटा बोलता था, और आवाज़ें गुम हो जाया करती थीं। शहर-ए-ख़ामोशी में सवाल पूछना एक जुर्म है… जिसकी सज़ा सिर्फ़ ख़ामोशी है।
सुबह की वो ख़ामोश घड़ी – Gayab Hote Logo Ki Kahani
सुबह के सात बज चुके थे। रसोई से अदरक और इलायची वाली चाय की महक बाहर आ रही थी।
खिड़की से आती हल्की धूप आरिफ़ हाशमी के चेहरे पर गिर रही थी, जो ड्रॉइंग रूम के सोफे पर बैठा था। हाथ में अख़बार था, मगर ध्यान कहीं और। उसकी आँखें बार-बार दरवाज़े की ओर उठतीं, फिर दीवार की घड़ी की तरफ।
हर रोज़ इस वक़्त उसका छोटा भाई अयान अपने कमरों में तहलका मचा दिया करता था— जलेबी की फरमाइश, बापू की बाइक की चाबी ढूंढ़ना, माँ से टिफ़िन में एक्स्ट्रा पराठे की डिमांड, और कॉलेज के लिए लेट होने की चीख़-पुकार। लेकिन आज… आज एक अजीब सी ख़ामोशी थी।
आरिफ़ ने ऊँची आवाज़ में पुकारा — “अयान! कॉलेज का टाइम हो रहा है, निकलो!” कोई जवाब नहीं आया।
आरिफ़ ने अख़बार मोड़कर साइड में रखा और बिना चप्पल पहने अयान के कमरे की ओर गया। दरवाज़ा आधा खुला था।
ग़ायब अयान
कमरा बिल्कुल वैसा ही था जैसा हर सुबह होता है — बेड पर फैली किताबें, डेस्क पर मोबाइल चार्जिंग में लगा हुआ, बैग टेबल पर रखा हुआ, जूते लाइन से सजे हुए। मगर… अयान नहीं था।
आरिफ़ ने पूरा कमरा छाना। अलमारी, बाथरूम, बालकनी — हर जगह देखा। फिर उसकी नज़र डेस्क के नीचे पड़े एक कागज़ के छोटे से पुर्जे पर गई। वो उठा कर देखा — उस पर एक वाक्य लिखा था:
“शहर-ए-ख़ामोशी में सवाल पूछना मना है।“
आरिफ़ का दिल बैठ गया। ये कोई मज़ाक नहीं था। कोई गहरा इशारा था। माँ की आवाज़ आई — “अयान का कमरा इतना शांत क्यों है आज?” आरिफ़ ने झूठ बोलने की कोशिश की — “शायद जल्दी निकल गया होगा कॉलेज…”
लेकिन उसकी आवाज़ खुद उसे भरोसा नहीं दिला पाई। वो वापस कमरे में गया, और अयान के मोबाइल को चेक करने लगा। कॉल लॉग्स, मैसेजेस — सब सामान्य थे। आख़िरी मैसेज कल रात का था: “कल तुम्हें एक चीज़ दिखाऊँगा… जो किसी ने नहीं देखी।”
पुलिस स्टेशन का सन्नाटा:
आरिफ़ सीधे पास के पुलिस स्टेशन पहुँचा।”सर, मेरा भाई अयान हाशमी सुबह से ग़ायब है। उसका मोबाइल, बैग, सब घर पर है। सिर्फ़ वो नहीं है। और ये देखिए… ये कागज़ मिला है।” थानेदार ने कागज़ को देखा, फिर उसे और गौर से घूरा।”दुश्मनी? अफेयर? कोई ड्रग्स-व्रग्स वाला मामला? “नहीं सर… कुछ नहीं। वो बहुत नॉर्मल लड़का है।”
थानेदार हँस पड़ा — “तुम लोग बहुत Netflix देखते हो। तीन दिन तक कोई रिपोर्ट नहीं होती। तब तक लौटे न लौटे, हमें क्या?”
उसने वो कागज़ फाड़कर डस्टबिन में फेंक दिया।
आरिफ़ कुछ कहता, इससे पहले ही दो कांस्टेबल उसे बाहर धक्का देकर निकाल देते हैं।
घर लौटना और नया पैग़ाम:
शाम ढल चुकी थी। घर में सन्नाटा था, मगर ये वो सन्नाटा नहीं था जो चैन देता है। माँ की आँखें लगातार दरवाज़े की तरफ थीं, अब्बा का चेहरा जैसे किसी पुराने अख़बार की तरह मुरझाया हुआ था। आरिफ़ बैठा ही था कि दरवाज़े के नीचे से कुछ सरकता है। वो झुककर देखता है — एक और कागज़ का पुर्जा। वही स्याही, वही लिखावट।
> “तेरा भाई भी वहीं गया है जहाँ सवाल नहीं किए जाते। जवाब चाहिए तो पुराने डाकघर आ। अकेले। रात 10 बजे।”आरिफ़ के हाथ काँप गए।
पुराना डाकघर:
रात 10 बजे। शहर की गलियों में अजीब सा सन्नाटा था। न लाइट, न लोग। सिर्फ़ हवा और बाइक की हेडलाइट।
पुराना डाकघर अब खंडहर हो चुका था। दरवाज़ों पर जंग, दीवारों पर सीलन और अंदर घुप अंधेरा।आरिफ़ ने दरवाज़ा खोला। अंदर कदम रखा ही था कि एक भारी आवाज़ गूँजी “बहुत सवाल करता है तू…”
एक परछाईं सामने थी — लम्बा कद, काले कोट में लिपटा, चेहरा नकाब से ढँका। “तेरा भाई सच्चाई तक पहुँचा था। अब वो नहीं है।”
“तुमने क्या किया उसके साथ?”
“हर वो इंसान जो इस शहर के राज़ को छेड़ता है — या तो ग़ायब हो जाता है, या ख़ामोश कर दिया जाता है।”फिर अचानक एक ज़ोरदार चीज़ उसके सर पर लगती जिस से वह बेहोश हो जाता है।
क्लिनिक में होश:
जब आरिफ़ को होश आया, वो एक छोटे से क्लिनिक में था।
नर्स ने बताया, “आपको कोई डाकघर के पास बेहोश हालत में छोड़ गया था। “पुलिस को बुलाएँ? “नहीं…”ठीक है। लेकिन आपकी जेब से ये मिला है… फिर वैसा ही एक लिफ़ाफ़ा था — उसी स्याही, उसी गंध के साथ। “तेरे भाई ने सवाल किए थे। अब तू भी कर रहा है। अगला कौन?”
अख़बार का कॉलम:
सुबह होते ही आरिफ़ ने अपने अख़बार में एक कॉलम छापा:
“शहर के सन्नाटों में गुम होते लोग — क्या ये सिर्फ़ इत्तेफ़ाक़ है? शाम को उसे एक ईमेल मिला: तुम अकेले नहीं हो। कॉफ़ी शॉप पर मिलो। फाइल नंबर 17 तुम्हें हिला देगी।”
सारा ख़ान से मुलाक़ात:
कॉफ़ी शॉप में एक औरत पहले से इंतज़ार कर रही थी। काले रंग का कोट, आंखों में थकान, और चेहरे पर संजीदगी। “मैं सारा ख़ान हूँ —मैं एक वकील हूं। अयान से पहले 43 लोग ग़ायब हो चुके हैं। मैं इस की छान बीन बहुत पहले से कर रही हूँ। जितने भी लोग गया हुए है सबने एक ही काम किया था — उन्होंने सवाल पूछे थे।” उसने एक फाइल खोली — नक्शे, तस्वीरें, अख़बार की कटिंग्स। “सबको एक जैसी चिट्ठी मिली, सब ग़ायब हो गए। कुछ तो वापस भी आए… मगर उनकी आंखों में ज़िंदगी नहीं थी।”
“तो मैं अगला हूँ?” — आरिफ़ ने काँपती आवाज़ में पूछा। सारा ने कहा —
❝ या तो अगला जवाब बनने को तैयार हो जाओ… या सवाल करना बंद कर दो।
शहर अब जाग रहा है:
शहर-ए-ख़ामोशी अब जाग रहा था। मगर क्या ये जागना सच्चाई के लिए था या और भी राज़ों के ग़ायब होने के लिए?
> ❝ इस शहर में ग़ायब होना आख़िरी पड़ाव नहीं… ये बस खेल की शुरुआत है। ❞ ❝ हर गली एक पहेली है, और हर दरवाज़ा एक जाल। क्या तुम अगला नाम बनोगे? ❞ ❝ वो चीख़ें लौटकर आई हैं… अब जवाब नहीं, सबूत चाहिए। और कीमत? वो शायद ज़िंदगी हो। ❞ ❝ जो सच्चाई तक पहुँचना चाहता है, उसे अपना नाम मिटाने के लिए तैयार रहना चाहिए। ❞
आगे क्या होगा जानने के लिए पढ़ते रहिए — शहर-ए-ख़ामोशी
[एपिसोड 2: फाइल नंबर 17] जल्द आ रहा है…
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