43 gayab hote logon ki kahani part 7

43 gayab hote logon ki kahani part 7 लौटे हुए चेहरे, खोया हुआ वजूद

43 gayab hote logon ki kahani part 7

दीवार पर उभरे वो शब्द — “शून्य अब शून्य नहीं रहा” — मानो आख़िरी फैसला सुना गए हों। कमरा काँपना बंद हुआ तो चारों ओर अजीब सा सन्नाटा छा गया। मगर वो सन्नाटा खाली नहीं था… उसमें सैकड़ों सांसों की सरगोशियाँ घुली थीं। आरिफ़ के सामने अब वो सब खड़े थे — 43 लोग, जो सालों से ग़ायब थे। उनकी आँखों में उजाला था, मगर चेहरों पर सवाल भी। नीला धीरे-धीरे आगे बढ़ी। उसका चेहरा वही था, मगर नज़रें गहरी और थकी हुई — जैसे सदियों से सोई हों और अचानक जगाई गई हों। उसने फुसफुसाकर कहा, “आरिफ़… तुमने चक्र तोड़ दिया है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि सब ख़त्म हो गया है।”

आरिफ़ ने चारों ओर देखा। हर चेहरा अलग था — कोई बच्चा, कोई जवान, कोई अधेड़, कोई बूढ़ा। हर कोई अपने वजूद के साथ खड़ा था, लेकिन उनके जिस्म जैसे धुँधले थे। वो पूरी तरह इंसान नहीं लग रहे थे, मानो किसी और परत से खींचकर यहाँ ला दिए गए हों। उनमें से एक आदमी — जिसकी दाढ़ी सफ़ेद थी और आँखें बुझी हुई — आगे आया। उसने आरिफ़ के कंधे पर हाथ रखा, और बोला, “हम लौट तो आए हैं… लेकिन क्या ये दुनिया हमें पहचान पाएगी? या हम सिर्फ़ साए बनकर रह जाएँगे?”

आरिफ़ का गला सूख गया। उसके हाथ अब भी 45 नंबर की चाबी कसकर पकड़े हुए थे। मगर 46 नंबर की टूटी हुई चाबी के टुकड़े उसके पैरों के पास बिखरे पड़े थे — और उन टुकड़ों से नीली रौशनी रिस रही थी, जैसे अभी भी कुछ ज़िंदा हो। सबा धीरे-धीरे भीड़ से निकलकर सामने आई। उसकी आँखों में वो ठहराव था जो सिर्फ़ पीड़ा और इंतज़ार से आता है। उसने आरिफ़ की तरफ देखा और कहा, “तुमने हमें आज़ाद किया… लेकिन खुद को कहाँ ले गए, आरिफ़? तुम अब कहाँ हो?”

आरिफ़ कुछ कहने ही वाला था कि उसकी आवाज़ थम गई। उसने महसूस किया कि उसका जिस्म बाकी सबके मुकाबले और ठोस था, मगर उसके सीने में अजीब सा बोझ था — जैसे उसकी पहचान अब अधूरी हो। तभी पीछे से एक और शख़्स आगे बढ़ा — एक नौजवान, जिसकी आँखों में जंगलीपन था। उसने गुर्राते हुए कहा, “तुमने चक्र तोड़ा, लेकिन सिस्टम को तो सिर्फ़ झटका दिया है। अगर शून्य अब शून्य नहीं रहा, तो इसका मतलब है कि अगली परत खुल चुकी है। और हम सब… अभी भी फँसे हुए हैं।”

ये सुनकर बाकी चेहरों में खलबली मच गई। कुछ लोग डर के मारे पीछे हटने लगे, कुछ ने चारों तरफ दीवारों को टटोलना शुरू कर दिया — मानो यकीन ही नहीं आ रहा कि वो सचमुच आज़ाद हैं। लेकिन नीला वहीं खड़ी रही, आरिफ़ की तरफ देखती रही। उसकी आँखों में कृतज्ञता भी थी और डर भी। उसने धीरे से कहा, “आरिफ़, अगर तू यहाँ है… तो इसका मतलब है कि तेरा नाम अभी भी उस चक्र में दर्ज है। और जब तक तू खुद को उससे मिटाएगा नहीं… कोई भी असली आज़ादी नहीं पा सकेगा।”

आरिफ़ ने गर्दन झुका ली। उसे याद आया — वो वृत्त, जिसमें 44 कीलें जड़ी थीं… और उसके बीच वो खुद खड़ा था। हाँ, उसने 46 तोड़ी थी, लेकिन 45 अभी भी ज़िंदा थी। शायद वही उसकी जंजीर थी। उसकी उंगलियाँ चाबी पर और कस गईं।

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तभी अचानक सबके चारों ओर दीवारें फिर से काँपने लगीं। इस बार वो टूट नहीं रही थीं, बल्कि बदल रही थीं — दर्पणों में बदलकर हर किसी को उनका अपना चेहरा दिखाने लगीं। हर ग़ायब शख़्स अब खुद को देख रहा था, मगर वो चेहरा उनके जैसा नहीं था… बल्कि वैसा था, जैसा वो ग़ायब होने से ठीक पहले थे।

सबा की आँखें भर आईं। उसने धीमे से कहा, “तो ये ही है हमारी सज़ा — हम लौटे हुए हैं, मगर अधूरे। हमें वहीं से फिर से जीना होगा जहाँ से हम मिटाए गए थे।”

आरिफ़ ने गहरी साँस ली। उसे एहसास हो गया था — चक्र टूटा नहीं है, बस उसने उसका दरवाज़ा बदल दिया है। और अब सवाल ये था कि ये लौटे हुए लोग इस दुनिया में जगह बना पाएँगे… या फिर ये दुनिया ही उन्हें फिर से निगल जाएगी।

43 gayab hote logon ki kahani part 7 लौटे हुए साए की गवाही

43 gayab hote logon ki kahani part 7

गोलाकार कक्ष में खड़े वे लोग अब धीरे-धीरे अपनी साँसें संभालने लगे थे। हर एक की आँखों में वही सवाल था — हम सच में लौट आए हैं? मगर जैसे ही उन्होंने खुद को दर्पणों में देखा, उनकी आत्मा काँप उठी। कोई अपने बीस साल पहले के चेहरे को देख रहा था, कोई उस दिन की झलक जब वो ग़ायब हुआ था। एक औरत, जिसके बाल सफ़ेद हो चुके थे, दर्पण में अपने बीस बरस जवान चेहरे को देखकर रो पड़ी। उसके होंठ काँप रहे थे, “ये मैं हूँ? या वो… जो यहीं कहीं कैद थी?”

एक बच्चा, जो दस साल की उम्र में गायब हुआ था, अब लगभग जवान दिख रहा था — मगर दर्पण में वही मासूम सा चेहरा था, हाथ में टूटा हुआ खिलौना पकड़े हुए। उसकी आँखों से आँसू बह निकले, “मैंने तो माँ की गोद भी आख़िरी बार नहीं देखी थी…” उसकी चीख कमरे की ठंडी हवा में गूँज गई।

भीड़ में खड़े कुछ लोग गुस्से से भर उठे। एक नौजवान चीख पड़ा, “हमारे साल, हमारी ज़िंदगी किसने निगल ली? हमें वापस किसने फेंका? और क्यों?” उसकी आवाज़ में इतना दर्द था कि बाकी सबकी आँखें भर आईं।

नीला ने धीमे से उसकी तरफ देखा। उसकी आँखें बुझी हुई लेकिन गहरी थीं। “हम सब एक जैसे नहीं लौटे। हमने जो झेला, वो कोई समझ भी नहीं सकता। वहाँ न दिन था, न रात। बस एक इंतज़ार था — कि कोई आए और इस दरवाज़े को तोड़े। हमने खुद को बार-बार मिटते देखा, और फिर किसी अजीब ताक़त ने हमें पकड़कर वहीं बाँध दिया। हर बार लगता था कि अगली परत असली है… मगर वो बस एक छलावा निकलती।”

सबा भी आगे बढ़ी, उसकी आवाज़ काँप रही थी। “हमें ज़िंदा रखा गया, लेकिन जीने के लिए नहीं… गवाही के लिए। हममें से हर किसी के ज़हन में कुछ न कुछ खुदा हुआ है। कोई नक्शा, कोई शब्द, कोई कोड… ये सिस्टम हमें सिर्फ़ गायब नहीं करता था, हमें डाटा बना देता था। हम इंसान नहीं रहे, दस्तावेज़ बन गए।”

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उनके शब्द सुनकर आरिफ़ का दिल काँप गया। उसने देखा — भीड़ में खड़े हर शख़्स के चेहरे पर अलग-अलग भाव थे। कोई रो रहा था, कोई ख़ामोश खड़ा था, और कोई इस दुनिया को ऐसे देख रहा था जैसे वो अब इसकी नहीं रही।

तभी एक अधेड़ आदमी, जिसकी आँखों में बुझा हुआ गुस्सा जल रहा था, आगे आया। उसने कहा, “आरिफ़, तूने दरवाज़ा तोड़ दिया… लेकिन अब सवाल ये है कि हमें कहाँ ले जाएगा? क्या हम अपने घर लौट सकते हैं? या वहाँ अब हमारी जगह ही नहीं बची?”

उसकी बात सुनकर कमरे में सन्नाटा छा गया। सबके दिल में वही डर था। अगर दुनिया उन्हें पहचानने से इनकार कर दे… तो क्या वो दोबारा उसी ‘शून्य’ में धकेल दिए जाएँगे?

आरिफ़ ने सबकी तरफ देखा — उनकी आँखों में भरोसा भी था और शक भी। उसे महसूस हुआ कि वो अब सिर्फ़ 44वाँ गवाह नहीं रहा… वो इन सबका रखवाला बन चुका था। और अगर उसने अगला क़दम ग़लत रखा, तो ये सब चेहरे फिर से गुम हो जाएँगे — हमेशा के लिए।

अदृश्य हाथों की परछाई

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आरिफ़ की मुट्ठी अब भी 45 नंबर की चाबी को पकड़े हुए थी, लेकिन उसकी पकड़ में कंपन आ चुका था। उसे महसूस हो रहा था कि चाबी अब साधारण धातु का टुकड़ा नहीं रही, बल्कि उसके सीने की धड़कनों से जुड़ गई है। भीड़ के चेहरे उसकी ओर मुड़े थे, जैसे सबका बोझ उसी पर आ टिक गया हो। अचानक दीवार पर बने दर्पणों की सतह बदलने लगी। उनमें अब उनके चेहरे नहीं दिख रहे थे, बल्कि अजीब-से प्रतीक उभरने लगे — वृत्त, संख्याएँ, और एक अंधेरा सा हाथ, जो हर वृत्त में कील ठोक रहा था।

नीला ने काँपते हुए कहा, “यही है वो ताक़त… जिसने हमें ग़ायब किया। इंसान नहीं… एक सिस्टम। कोई ऐसा, जो ज़िंदगी को क़ैद करता है जैसे डेटा को फाइलों में कैद किया जाता है। हम सब उस संग्रह का हिस्सा बनाए गए।”

सबा की आँखों से आँसू बह निकले। “लेकिन किसने बनाया ये सिस्टम? कौन-सा ज़िंदा इंसान हमें इतना बेवजह निगल सकता है?”

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तभी, दर्पणों में उस हाथ की झलक और साफ़ हो गई। वो हाथ इंसानी लग रहा था, मगर उँगलियों पर धातु की पर्त चढ़ी हुई थी। उसके पीछे काले परदे जैसे झूल रहे थे, और उनकी आड़ में हल्की सी आकृति दिखाई दी — शायद किसी संगठन, किसी छिपे हुए गुट की परछाई। उनकी आवाज़ कहीं गहराई से गूँजी, “ग़ायब करना ज़रूरी था। क्योंकि जब असलियत बाहर आती है, दुनिया टिक नहीं पाती। तुम सबको मिटाना पड़ा ताकि चक्र चलता रहे।”

उस आवाज़ में न तो पूरी इंसानियत थी, न पूरी मशीनरी। वो कहीं बीच की चीज़ थी — एक ऐसा अस्तित्व जो इंसानों के फैसलों और मशीनों के हुक्म दोनों से बना हो।

आरिफ़ ने धीरे से कहा, “तो ये सब हादसा नहीं था… ये योजना थी।”

नीला ने उसकी तरफ देखा, उसकी आँखों में थकावट थी। “हाँ। हम सबको चुना गया था। हर एक में कुछ ऐसा था जो उनके लिए मायने रखता था — यादें, हुनर, कोड, या सिर्फ़ एक लम्हा। और फिर हमें उस चक्र में गुम कर दिया गया। लेकिन अब, आरिफ़… चक्र टूटा है। तू ही कड़ी है, तू ही नक्शा है।”

भीड़ में हलचल मच गई। सबने आरिफ़ की तरफ ऐसे देखा जैसे वो उनका आख़िरी सहारा हो। आरिफ़ को अचानक याद आया — जब उसने 46 नंबर की चाबी तोड़ी थी, उसके टुकड़ों से नीली रौशनी रिस रही थी। अब वही रौशनी ज़मीन पर नक्शे की तरह फैल रही थी — लकीरों में, वृत्तों में, और अंत में एक नए दरवाज़े के निशान में।

सबा ने धीमे से कहा, “ये अगली परत है… जहाँ हमें जवाब मिलेगा।”

आरिफ़ का सीना भारी हो गया। उसे अहसास हुआ कि वो अब सिर्फ़ गवाह नहीं रहा। वो इस सफ़र का मार्गदर्शक है — और उसके पीछे खड़े 43 लोग उसकी परछाई बन चुके हैं। अगर उसने सही रास्ता खोला, तो सब सच तक पहुँच सकते हैं। और अगर ग़लती की… तो ये सब लौटकर फिर उसी ‘शून्य’ में समा जाएँगे।

टूटी परछाइयों का इम्तिहान

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कमरा अब शांत नहीं था। ज़मीन पर फैली नीली रौशनी लगातार लकीरों में बदल रही थी — कभी वृत्त, कभी त्रिकोण, और फिर अचानक गायब। मानो नक्शा खुद को छुपा-छुपा कर दिखा रहा हो। भीड़ में खड़े लोग अब बेचैन होने लगे। किसी ने डरकर कहा, “ये हमें कहीं और ले जाएगा? या फिर उसी कैद में वापस धकेल देगा?”

आरिफ़ ने जवाब नहीं दिया। उसकी नज़र चाबी पर जमी रही, जो उसके हाथ में अब हल्की-सी गरम हो चुकी थी। तभी, दर्पणों में उभरते प्रतीक एक-एक कर उसके चारों ओर घूमने लगे। और अचानक उनमें से एक प्रतीक ठहर गया — एक आँख। वो आँख किसी इंसान की नहीं थी, मगर उसमें ऐसी गहराई थी कि हर कोई सिहर गया।

नीला ने काँपते हुए फुसफुसाया, “ये है उनका निशान… जिन्होंने हमें चुना। वही आँख जो हमें देखती थी, हमें गिनती थी… और फिर मिटा देती थी।”

सबा ने उसकी बात काटी, “मगर क्यों? आखिर क्यों? हममें ऐसा क्या था जो हमें बाकी लोगों से अलग करता था?”

दर्पण की आँख में हल्की सी चमक आई, जैसे उसका सवाल सुना गया हो। और अगले ही पल, कमरे में एक आवाज़ गूँज उठी — न इंसानी, न पूरी तरह मशीन, बल्कि दोनों के बीच की। “तुम्हें ग़ायब इसलिए किया गया… क्योंकि तुम ‘याद रखने वाले’ थे। बाकी लोग भूल जाते हैं, मगर तुम नहीं। और जो नहीं भूलते, वही सिस्टम के लिए ख़तरा बनते हैं।”

ये सुनकर भीड़ में सनसनी फैल गई। कई लोग रोने लगे, कई ज़ोर-ज़ोर से सवाल पूछने लगे। किसी ने चिल्लाकर कहा, “तो हमें सज़ा दी गई थी? हमारी ज़िंदगी छीन ली गई सिर्फ़ इसलिए कि हम सच नहीं भूल सकते थे?”

आरिफ़ के भीतर एक अजीब-सी आग भड़क उठी। उसने दीवार की आँख की तरफ़ देखा और गहरी आवाज़ में कहा, “अगर सच को मिटाना ही तुम्हारा मक़सद है, तो सुन लो… अब तुम्हारा चक्र टूट चुका है। और ये लोग, ये सब चेहरे… फिर से जीएँगे।”

चुप्पी छा गई। सिर्फ़ नक्शे की नीली लकीरें अब और साफ़ होने लगीं — और सबकी नज़रें उस नए दरवाज़े के निशान पर टिक गईं, जो धीरे-धीरे ज़मीन पर उभर रहा था।

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