Google Pe Naam Nahin Hai part 3

Google Pe Naam Nahin Hai part 3

Google Pe Naam Nahin Hai part 3

अब तक आपने देखा…
एक पत्रकार, इहान सिद्दीक़ी, जो हक़ीक़त की तलाश में अपनी जान को दांव पर लगाकर उन दरवाज़ों को खटखटा रहा है जिन पर ताले नहीं, ख़ामोशी लटकी हुई है।
पहले पार्ट में उसने एक अनाम गली की ख़ामोशियों से सुराग़ खोजे, दूसरे पार्ट में वो अदालत की सीढ़ियाँ चढ़ा जहाँ गवाह ग़ायब थे और सवालों पर जंजीरें थीं। लेकिन हर दरवाज़े के पीछे एक नया झूठ, एक नई साज़िश, और एक नई दीवार खड़ी मिलती है।

अब आगे….

सुप्रीम कोर्ट की ऊँची दीवारों के बाहर वो शाम कुछ ज़्यादा ही गहराई हुई थी। इहान सिद्दीक़ी कोर्ट से बाहर निकला, लेकिन उसकी आँखें अब भी वहीँ अटकी थीं—उस कोर्ट रूम की दीवारों पर जहाँ इंसाफ़ की जगह अब सन्नाटा बयान देता है।
उसे अब भी यक़ीन था कि वो शख्स जिसने अदालत में सच्चाई को कुचलते देखा है, वही उसे पर्दे के पीछे के किरदारों तक पहुँचाएगा। लेकिन सवाल यह था—कौन है वो?

रात के अंधेरे में उसकी काली डायरी फिर खुली। पिछले हिस्सों में दर्ज हर नाम अब धुंधला होता जा रहा था। एक नई फ़ाइल उसके सामने थी—‘D-8’। एक केस, जो कभी फाइलों में था ही नहीं।
उस फाइल के पहले पन्ने पर सिर्फ़ एक शब्द लिखा था“गुमनाम।”

इहान जानता था कि इस शब्द के पीछे कई और नाम दबे हैं, लेकिन अगर उसने यह रास्ता चुना, तो अब पीछे लौटने की कोई गुंजाइश नहीं बचती।

हर नाम, हर दस्तावेज़, और हर अंधेरा अब एक ही दिशा में इशारा कर रहा था—कहीं कोई ऐसा है जो सच की परछाई को भी मिटा देना चाहता है।

Google Pe Naam Nahin Hai part 3 गुमनामियों के नक़्शे पर पहला क़दम”

Google Pe Naam Nahin Hai part 3

इहान ने ‘D-8’ फाइल के पन्ने पलटने शुरू किए। हर काग़ज़, हर दस्तावेज़ जैसे उसके ज़ेहन में कोई नई खिड़की खोल रहा था। मगर इन पन्नों में कोई तारीख़ नहीं थी, कोई मोहर नहीं, कोई दस्तख़त नहीं — जैसे ये किसी और ही अदालत की कारस्तानी थी, एक ऐसी अदालत जिसकी कार्यवाही कभी खुले दरवाज़ों में नहीं होती।

पहले पन्ने के नीचे एक छोटा सा कोड था—”MZR/14.7.1″। इहान की आँखों ने जैसे उस कोड को नहीं, एक सुराग़ को पकड़ा। यह कोई केस नंबर नहीं था, बल्कि लोकेशन कोड लग रहा था। उसे याद आया, कई बरस पहले उसने एक ख़ुफ़िया दस्तावेज़ में ऐसा ही कोड देखा था, जिसका ताल्लुक़ “मज़ार-ए-रहमत” नाम की एक पुरानी जगह से था — एक क़ब्रिस्तान, जो अब शहर की सीमा के बाहर है और सरकारी नक़्शों से हटा दिया गया है।

इहान ने बिना वक़्त गँवाए उसी रात एक टैक्सी बुक की। ड्राइवर ने जैसे ही लोकेशन सुनी, उसकी आँखों में अजीब सी झिझक थी। “साहब, उधर तो कोई जाता नहीं… वो जगह तो बंद है… सुना है वहाँ कई लोगों की लाशें मिली थीं, और कुछ लोग तो वापस ही नहीं आए।”

इहान बस मुस्कराया — “जिन्हें गुमनाम होना हो, उन्हें डर नहीं लगता। चलो।”

टैक्सी जैसे ही शहर की जगमगाहट से बाहर आई, अंधेरा गाढ़ा होता गया। सड़कें तंग होती गईं, और मोबाइल का नेटवर्क भी टूटने लगा। मगर इहान के दिल की धड़कनें अब पहले से ज़्यादा साफ़ थीं — जैसे कोई उसकी रगों में रास्ता बना रहा हो।

आख़िरकार वो जगह आ गई—लोहे का जंग खाया फाटक, जिसके ऊपर उर्दू में हल्के-से मिटे हुए लफ़्ज़ थे: “मज़ार-ए-रहमत – दफ़न सिर्फ़ जिस्म नहीं, राज़ भी होते हैं।”

इहान कुछ पल वहीं खड़ा रहा, जैसे इस दरवाज़े के उस पार कोई उसे देख रहा हो।उसने अपनी काली डायरी को कसकर पकड़ा और पहला क़दम बढ़ाया।

उसे अब यक़ीन हो चला था — “D-8” सिर्फ़ एक केस नहीं, एक नक़्शा है… उन नामों का, जिनका होना अब किसी सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज नहीं, बल्कि मिट्टी की तहों में दफ़्न है।

पर क्या इहान उन नामों को आवाज़ दे पाएगा? या वो खुद एक नाम बनकर इसी मिट्टी में दफ़्न हो जाएगा — गुमनाम?

मज़ार की मिट्टी और दबे हुए नाम

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जैसे ही इहान ने “मज़ार-ए-रहमत” के भीतर पहला क़दम रखा, एक अजीब सन्नाटा उसके चारों तरफ़ पसर गया। चारों ओर टूटी-फूटी कब्रें, उखड़े हुए पत्थर और मिट्टी की सीलन से उठती वो नमी, जो किसी राज़ को छुपाने के लिए खुद पर बोझ बन चुकी थी। हवा में एक घुटी हुई सी महक थी—जैसे पुराने दस्तावेज़ों, गीली मिट्टी और खून की मिली-जुली स्मृति हो।

मज़ार में क़दम रखते ही उसे एहसास हुआ कि यहाँ सिर्फ़ कब्रें नहीं, निशानियाँ दफ़्न थीं। ज़मीन पर पड़ा एक टूटा हुआ नामपट्ट उसे दिखा—“तौसीफ़ अली — 1987”। इहान चौंका। ये नाम उसने D-8 फाइल में देखा था, उस पन्ने के एक कोने में लिखे अधूरे वाक्य में: “तौसीफ़ आख़िरी बार मज़ार के पास…” और उसके बाद पंक्ति अधूरी थी।

जैसे ही इहान आगे बढ़ा, उसे मिट्टी में दबा एक और लकड़ी का टुकड़ा मिला—जिस पर हल्के अक्षरों में कुछ लिखा था, जैसे किसी बच्चे ने काँपते हाथों से लिखा हो: “हमें कोई ढूंढने नहीं आएगा…”

ये अब महज़ खोज नहीं रही। ये किसी भूले हुए इतिहास की कब्रगाह थी।

तभी एक हल्की सी आहट ने उसका ध्यान खींचा। पेड़ों के पीछे कोई साया हिला था। इहान ने जेब से टॉर्च निकाली और रोशनी उस दिशा में फेंकी। वहाँ कुछ नहीं था, लेकिन ज़मीन पर कुछ ताज़े क़दमों के निशान थे—कच्ची मिट्टी में गहरे धँसे हुए, जैसे कोई इसी रास्ते से होकर अभी-अभी गुज़रा हो।

इहान उन क़दमों के पीछे बढ़ा, लेकिन कुछ दूर जाकर वे निशान अचानक मिट गए। उसके ठीक सामने एक अधखुला तहख़ाना था, लोहे की सीढ़ियाँ नीचे जाती थीं—जैसे ज़मीन ने खुद मुँह खोला हो और कहा हो: “जो सच ढूंढता है, पहले खुद को खोना सीख।”

इहान की साँसें तेज़ हो गईं। नीचे से आती हवा में नमी के साथ कुछ और भी था—एक घुटन, एक बेक़रारी, और एक ऐसा मौन जो चीख़ों से भारी था।

क्या यह वही जगह थी जहाँ D-8 का जवाब छुपा था?

या यह एक और रास्ता था… खुद इहान को गुमनाम बनाने का?

उसने टॉर्च की रोशनी कसकर पकड़ी और सीढ़ियों की पहली धातु पर पाँव रखा।

अब वापसी का कोई रास्ता नहीं था।

तहख़ाने के नीचे दबा हुआ सच

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लोहे की सीढ़ियाँ जब उसके जूतों से टकराईं, तो एक सूनी ध्वनि गूँजी—जैसे किसी पुराने तहख़ाने ने वर्षों बाद किसी को भीतर आने की इजाज़त दी हो। नीचे उतरते ही सीलन और सड़ांध की मिली-जुली बू ने उसका दम घोंटने की कोशिश की, लेकिन इहान अब अपनी साँसें रोकना नहीं चाहता था, वो चाहता था कि ये बदबू उसकी रूह तक समा जाए — ताकि जब सच सामने आए, तो उसमें झूठ की कोई महक बाकी न रहे।

नीचे का कमरा ईंटों से बना हुआ था, दीवारें नंगी और दमघोंटू। एक कोने में बिखरे हुए रजिस्टर, जले हुए काग़ज़ और एक टूटी हुई टेबल पड़ी थी, जिस पर अब भी किसी पुरानी फ़ाइल की राख चिपकी हुई थी। इहान ने टॉर्च की रोशनी इधर-उधर घुमाई, तो एक दीवार पर हल्के अक्षरों में कुछ खुदा हुआ नज़र आया — “अगर नाम मिटा दिए जाएँ, तो क्या सच्चाई भी मिट जाएगी?”

इहान की साँसें रुक गईं। ये वही वाक्य था जो उसने D-8 की फ़ाइल के एक अनऑफिशियल नोट में पढ़ा था, पेंसिल से लिखा गया, शायद किसी क्लर्क या अंदरूनी सूत्र की आख़िरी कोशिश। इसका मतलब था — यह जगह वाकई उसी केस का हिस्सा थी, जिसे सबने भुला दिया था या भुला दिया गया था।

दीवारों के दूसरी तरफ़ एक छोटी सी लकड़ी की अलमारी थी। उसने जैसे ही उसे खोला, अंदर एक लोहे का डिब्बा रखा था — जंग लगा, मगर बंद। इहान ने अपनी जेब से पेन नाइफ़ निकाला और धीरे-धीरे ताले को तोड़ा। डिब्बे के अंदर एक पुराना कैमरा था — वो भी 90 के दशक का, रोल वाला।

उसके साथ एक छोटी सी डायरी थी, जिसके पहले पन्ने पर सिर्फ़ इतना लिखा था:“अगर ये कैमरा मिल गया है, तो शायद मेरी मौत को भी मत भूलना। सबूत वहीं हैं जहाँ आवाज़ें दबाई गई थीं।”

इहान की आँखें भर आईं। सच बोलने वालों की चुप मौतें कभी सुर्खियों में नहीं आतीं। मगर अब ये कैमरा एक चाबी था — न सिर्फ़ D-8 केस को खोलने की, बल्कि शायद पूरे सिस्टम की परतें उधेड़ने की।

कमरे में रोशनी हल्की पड़ने लगी थी, टॉर्च की बैटरी खत्म हो रही थी। लेकिन अब उसके पास एक रास्ता था, एक नई दिशा।क्या कैमरे के अंदर छुपी रीलों में वो सच बंद था जिसे कोई देखना नहीं चाहता था?

इहान ने कैमरे को कसकर पकड़ा। बाहर अंधेरा और गहरा हो चुका था। लेकिन अब वो अकेला नहीं था — अब उसके पास एक गवाह था।

सच की आँखें

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इहान ने उस कैमरे को हथेलियों में कुछ इस तरह पकड़ा जैसे वो कोई पुराना रिश्तेदार हो, जो बरसों बाद गवाही देने लौटा हो। बाहर का अंधेरा और अंदर की बेचैनी अब एक-दूसरे में घुलने लगे थे। मगर कैमरे की ठंडी धातु और उसमें बंद रीलें अब उसे किसी अकेलेपन का हिस्सा नहीं, बल्कि किसी गूंगे सच की आवाज़ लग रही थीं।

 

उसने बाहर निकलते ही सबसे पहले अपने पुराने तकनीकी दोस्त सईद को कॉल किया—एक ऐसा इंसान जो अब दुनिया से अलग-थलग होकर शहर के बाहर एक वर्कशॉप में रहता था, और जिसके पास अब भी 90 के दशक के रील-कैमरे चलाने का साजो-सामान था। सईद ने जैसे ही कैमरे का ज़िक्र सुना, कुछ पल चुप रहा और फिर बोला, “अगर ये वही है जो मैं सोच रहा हूँ, तो इसे देखने से पहले अपना ईमान मजबूत कर लेना… इसमें आंखें खुल जाएंगी, लेकिन नींदें उड़ जाएंगी।”

रात के तीन बजे जब इहान सईद के वर्कशॉप पहुँचा, तो वहाँ सिर्फ़ मशीनों की खड़खड़ाहट और एक टेबल लैम्प की पीली रोशनी थी। सईद ने कैमरे को देखा, फिर धीरे से सिर हिलाया और बोला, “यह कैमरा कभी किसी प्रेस फोटोग्राफ़र का रहा होगा। पर यह आम रिपोर्टिंग नहीं करता था, ये रुकती हुई साँसें पकड़ता था।”

रील को सावधानी से बाहर निकाला गया। सईद ने अपने प्रोजेक्टर पर उसे सेट किया और स्क्रीन पर जैसे ही पहली तस्वीर उभरी, कमरे की हवा रुक गई। धुंधले चेहरे, ज़ंजीरों से बंधे लोग, सरकारी बिल्लों वाली वर्दियाँ और उनके पीछे—वही कोर्ट की दीवारें, जिनसे इहान हाल ही में लौटा था।

एक तस्वीर में एक शख्स की आँखें सीधे कैमरे की लेंस में झाँक रही थीं—जैसे वो जानता हो कि वो ज़िंदा नहीं बचेगा, लेकिन उसकी आँखें ही उसकी आख़िरी चीख़ होंगी।

इहान सन्न था। ये केवल सबूत नहीं थे—ये गवाही थी, वो गवाही जिसे कोर्ट ने नहीं सुना, मीडिया ने नहीं दिखाया, और सिस्टम ने मिटा दिया।

अब फैसला इहान के हाथ में था।

क्या वह इन तस्वीरों को उजागर करेगा, सिस्टम के उस चेहरे को सामने लाएगा जिसे नकाबों के पीछे छिपाया गया है?

या फिर वह भी उन्हीं में शामिल हो जाएगा जिनके नाम… गूगल पर नहीं हैं?

नकाब के पीछे की अदालत

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इहान की उंगलियाँ अब भी उस प्रोजेक्टर के बटन पर जमी थीं, मगर उसकी आंखें स्क्रीन पर जमी उस आख़िरी तस्वीर से हट नहीं पा रही थीं — एक कैदी की आंखें, जिनमें कोई आंसू नहीं था, कोई डर नहीं था… सिर्फ़ इंतज़ार था कि कोई तो होगा जो देखेगा, कोई तो होगा जो बोलेगा। सईद ने प्रोजेक्टर बंद कर दिया, कमरे में फिर वही सन्नाटा पसर गया। इहान उठा, और धीमे से बोला, “अब ये तस्वीरें किसी अख़बार की हैडलाइन नहीं, किसी अदालत की चीख़ हैं… एक ऐसी अदालत, जो किसी भवन में नहीं, बल्कि लोगों के ज़मीर में लगनी चाहिए।”

सईद ने सिर्फ़ एक बात कही, “अगर तू ये उजागर करेगा… तो दो ही रास्ते हैं—या तो तू गुमनाम हो जाएगा, या फिर एक नाम बन जाएगा… वो नाम जो कभी गूगल पर नहीं था, लेकिन लोगों की ज़ुबान पर होगा।”

इहान ने बिना कुछ कहे कैमरे की रीलें समेटीं और वहां से निकल पड़ा। रास्ते में सड़कों की बत्तियाँ बुझी थीं, मगर उसके ज़ेहन में एक जलता हुआ सच था जो अब बुझाया नहीं जा सकता था। वह सीधे पहुँचा उस अख़बार के दफ़्तर, जहाँ कभी वो ट्रेनी हुआ करता था—लेकिन अब वो सिर्फ़ एक रिपोर्टर नहीं था, वो एक गवाह बन चुका था।

दफ़्तर में पुराने सम्पादक ने फ़ाइलें देखीं, तस्वीरें पलट-पलट कर देखीं और फिर सिर झुका लिया। “तू जानता है न, अगर ये छपा, तो सिर्फ़ तुझे नहीं, हमें भी मिटा दिया जाएगा… सिस्टम हर चीख़ का गला घोंट सकता है।”

इहान की आवाज़ धीमी मगर ठोस थी, “मगर मैं अब चीख़ों के हिस्से में हूँ… और चुप रहना अब जुर्म है।”

सम्पादक ने गहरी सांस ली और धीरे से कहा, “तो तय है… अगले रविवार की विशेष रिपोर्ट में यह तस्वीरें होंगी… और तुम्हारा नाम…?”

इहान मुस्कराया। नाम मत देना… सिर्फ़ इतना लिख देना—‘जिसकी तलाश अब भी गूगल पर नहीं है… मगर हक़ीक़त के पन्नों पर दर्ज हो चुका है।’”

अख़बार की छपाई शुरू हो चुकी थी।

बाहर सुबह की पहली किरण आ रही थी।

मगर शहर के आसमान में अब एक और लकीर थी — सच की, जो अब झूठ से बड़ा हो चुका था।

सच का साया

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अख़बार के पन्नों पर इहान की रिपोर्ट जैसे ही छपी, शहर में जैसे कोई बंद दरवाज़ा धीरे-धीरे चरमराने लगा। कुछ लोगों की पेशानियों पर शिकन उभरी, कुछ दफ़्तरों में फ़ाइलें अचानक ‘गायब’ हो गईं, और कुछ पुरानी इमारतों की दीवारों पर नामों के निशान मिटाए जाने लगे। मगर सबसे बड़ा बदलाव था — आम लोगों की आंखों में पहली बार उभरी वो झलक, जो डर से नहीं, हिम्मत से पैदा होती है।

इहान को कुछ दिनों तक किसी ने संपर्क नहीं किया। लेकिन उसे मालूम था कि वो अब नज़र में है। एक दिन, जब वो रात को अपनी डायरी में सब कुछ दर्ज कर रहा था, दरवाज़े के नीचे से एक चुपचाप लिफ़ाफ़ा सरकाया गया। उसने लिफ़ाफ़ा खोला — उसमें एक पुराना काग़ज़ था, उसी कोड भाषा में लिखा गया जैसा ‘D-8’ की फाइल में था:

“73-B से 14-Z तक… सच अभी अधूरा है।”

नीचे एक काले रंग की मोहर थी — बिना किसी नाम या प्रतीक के, बस एक घुमावदार निशान, जैसे किसी सांप की लहराती हुई पूंछ।

इहान की साँसें फिर तेज़ हो गईं। क्या यह कोई चेतावनी थी? या फिर अगली मंज़िल की पहली दस्तक?

उसने उसी वक़्त सईद को कॉल किया, लेकिन इस बार फोन उठा नहीं। अगली सुबह जब वह उसके वर्कशॉप पहुँचा, तो दरवाज़ा खुला था… अंदर की चीज़ें अपनी जगह थीं, लेकिन सईद… ग़ायब था।

टूल्स की मेज़ पर एक कैमरा रखा था — वही कैमरा जो उन्होंने देखा था, मगर उसकी रील अब गायब थी।

इहान समझ गया — खेल अब और बड़ा हो चुका है।

सिस्टम अब सिर्फ़ फ़ाइलें नहीं मिटा रहा… अब वो गवाहों को मिटा रहा है।

[PART 3 समाप्त]

कुछ सवालों के जवाब मिलते हैं… और कुछ जवाब एक नया सवाल बन जाते हैं।

सच अब सामने है… मगर उसकी क़ीमत किसे चुकानी होगी?

इंतज़ार कीजिए — ‘Google पे नाम नहीं है’ | PART 4 — “गवाहों की ख़ामोशी”

जल्द आ रहा है।

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