Khazane ki talash part 4 maut ke darwaze par dastak

Khazane ki talash part 4 पन्ने की पहली फुसफुसाहट

Khazane ki talash part 4 maut ke darwaze par dastak

डायरी का पन्ना जैसे हवा में खुद ही सांस ले रहा था। उस पर उभरे अल्फ़ाज़ महज़ स्याही नहीं थे — वो जैसे किसी सदियों पुराने ज़ख्म से रिसता सच थे। सलिम की उँगलियाँ हल्के से उस पन्ने को छू रही थीं, लेकिन दिल में ऐसा लग रहा था जैसे वो अपनी रगों में अंगार छू रहा हो। ज़हीर चाचा की निगाहें चुपचाप उस पर टिकी थीं, और राशिद… वो कमरे के एक कोने में खड़ा, अपनी थकी हुई साँसों के बीच, सलिम के चेहरे पर बदलते रंग पढ़ रहा था।

बाहर हवेली के आँगन में रात का अंधेरा और गाढ़ा हो चुका था। चाँद बादलों में छिप गया था, और सिर्फ़ हवा की धीमी-सी हूक सुनाई दे रही थी — जैसे वो भी इस पन्ने पर लिखे राज़ को सुनने के लिए ठहर गई हो।पन्ने के नीचे हल्के से उभरी एक आकृति थी — कोई नक्शा नहीं, बल्कि एक चेहरे की रूपरेखा। सलिम की धड़कन रुक-सी गई। वो चेहरा उसकी माँ का था।

उसकी आँखें, उसकी मुस्कान… सब हूबहू। लेकिन उस तस्वीर में आँखों के भीतर एक अजीब सा चिन्ह चमक रहा था — वही चिन्ह जो डायरी के पहले पन्ने में ‘साया-ए-सिलसिला’ के प्रतीक के रूप में उभरा था। सलिम की साँसें भारी हो गईं। यह कैसे मुमकिन था? क्या उसकी माँ का इस सब से कोई रिश्ता था, या फिर यह सिर्फ़ एक चेतावनी थी, जिसे ‘साया’ ने उसके मन को तोड़ने के लिए छोड़ा था?

“ये क्या मतलब है, चाचा…?” सलिम की आवाज़ काँप रही थी, लेकिन उसमें डर से ज़्यादा सवाल थे।
ज़हीर ने धीमे से कहा, “कभी-कभी सच की चाबी हमारे सबसे करीब के लोगों में छिपी होती है… और कभी-कभी, वही लोग हमें सच से सबसे दूर ले जाते हैं।”
राशिद ने बीच में ही गहरी साँस लेकर कहा, “अगर ये चेहरा यहाँ है, तो या तो वो तुम्हारे लिए खतरा है… या फिर तुम्हारा सबसे बड़ा सहारा। साया-ए-सिलसिला भावनाओं को हथियार बनाना अच्छी तरह जानता है।”

यह भी पढ़ें : गूगल पे नाम नहीं है

सलिम ने पन्ना पलटने की कोशिश की, लेकिन वो हिला तक नहीं। जैसे किसी ने उस पर वक़्त की मुहर लगा दी हो। उसी वक्त हवेली के दरवाज़े पर तीन बार दस्तक हुई — धीमी, मगर बेहद ठंडी। राशिद तुरंत चौकन्ना हो गया, ज़हीर ने सलिम को इशारा किया कि डायरी बंद करे। मगर पन्ना बंद नहीं हुआ। वो खुला ही रह गया, और उसमें से जैसे कोई धुँधली रोशनी फैलने लगी। उस रोशनी में शब्द तैरने लगे — “कुर्बानी पहला दरवाज़ा है…”

दरवाज़े पर दस्तक फिर हुई, इस बार और भारी। राशिद ने पिस्तौल थामी और धीरे-धीरे बाहर जाने लगा, लेकिन ज़हीर ने उसे रोकते हुए कहा, “अगर ये साया है, तो गोली से कुछ नहीं होगा… ये लड़ाई दिमाग़ और दिल की है।” सलिम ने एक गहरी साँस ली और पन्ने पर हाथ रखा। अचानक कमरा ठंडा हो गया, जैसे हवेली की दीवारें बर्फ़ से ढक गई हों। बाहर दस्तक की आवाज़ रुक गई… और अंदर, पन्ने के शब्द धीरे-धीरे बदलकर एक नई पंक्ति में बदल गए — “जिसे तुम बचाना चाहते हो, वही तुम्हें सच तक ले जाएगा… अगर तुम उसे खोने से डरते नहीं।”

सलिम ने महसूस किया कि ये खेल अब महज़ एक गुप्त किताब का नहीं रहा — अब दाँव उसकी अपनी नसों में दौड़ते ख़ून का था।

Khazane ki talash part 4 छुपी हुई साँसें

Khazane ki talash part 4 maut ke darwaze par dastak

सलिम की उंगलियां अब भी पन्ने पर टिकी थीं, लेकिन उसका ज़हन दरवाज़े की उस आखिरी दस्तक में अटका था। जैसे वहां खड़ा कोई शख्स न सिर्फ़ दीवार, बल्कि उसकी रगों के भीतर भी दस्तक दे रहा हो। हवेली के भीतर एक अजीब सी खामोशी पसरी थी — वो खामोशी जो तूफ़ान से ठीक पहले आती है। मोमबत्तियों की लौ लहराने लगी, मानो दीवारों के बीच से कोई अदृश्य हवा बह रही हो।

राशिद धीरे से खिड़की के पास पहुंचा और बाहर झांका। हवेली का आँगन खाली था… लेकिन मिट्टी पर ताज़े पैरों के निशान साफ़ दिखाई दे रहे थे — गहरे, भारी और बेहद बड़े। ये इंसान के पैर नहीं लग रहे थे, बल्कि जैसे किसी पुराने समय का बोझ लेकर कोई चला हो। राशिद की आँखों में डर की जगह हैरत थी। “ये… ये किसके हो सकते हैं?” उसने धीमे स्वर में कहा।

ज़हीर ने खामोशी से उसकी ओर देखा और बस इतना कहा — “हर विरासत के साथ एक रक्षक आता है… और कभी-कभी, वो रक्षक तुम्हारा दुश्मन भी होता है।”सलिम ने पन्ने से नजर हटाकर दोनों को देखा। उसके होंठ सूखे थे, लेकिन आँखों में एक नई जिद चमक रही थी। “अगर ये रक्षक है, तो ये यहां क्यों है?” उसने पूछा।

ज़हीर ने जवाब नहीं दिया। उसकी निगाह बस डायरी पर टिकी रही, जैसे वो कुछ इंतजार कर रहा हो। तभी पन्ने से एक हल्की-सी सरसराहट सुनाई दी — जैसे कोई पुरानी आवाज़ दूर से आ रही हो। शब्द धुंधले थे, मगर समझ में आ रहे थे: “दरवाज़ा खोलो… और खुद को खोने से मत डरो…”

सलिम ने पलकें झपकीं। ये आवाज़ उसने पहले भी सुनी थी — बचपन में, जब उसकी माँ उसे एक पुराना किस्सा सुनाती थीं जिसमें एक राज़ के रक्षक की बात होती थी। लेकिन तब उसने उसे बच्चों की कहानी मानकर भूलने की कोशिश की थी। अब उसे समझ आ रहा था कि शायद वो कहानी महज़ कहानी नहीं थी।

अचानक बाहर हवेली की पुरानी घंटी खुद-ब-खुद बजने लगी — तीन बार, फिर रुक गई। मोमबत्तियां बुझ गईं। सिर्फ़ डायरी की हल्की नीली रोशनी कमरे को रोशन कर रही थी। राशिद ने अपनी पिस्तौल की पकड़ और कस ली, लेकिन सलिम ने धीरे से हाथ उठाकर उसे रोक दिया।“नहीं… अगर ये वही है जो मैं सोच रहा हूँ, तो हमें दरवाज़ा खोलना होगा।”

राशिद ने गुस्से से कहा, “तुम्हें पता भी है, बाहर कौन है?”सलिम ने ठंडे स्वर में कहा, “नहीं… लेकिन ये भी सच है कि अगर मैंने ये दरवाज़ा नहीं खोला, तो शायद मैं कभी सच तक न पहुँच पाऊँ।”

यह भी पढ़ें : 43 गायब होते लोगों की कहानी

ज़हीर ने सलिम की ओर देखा — उसकी आँखों में गर्व और चिंता दोनों थे। “ठीक है… लेकिन याद रखना, हर दरवाज़ा दो चीजें खोलता है — एक राह… और एक खतरा।”

सलिम ने कदम बढ़ाए। हवेली का बड़ा लकड़ी का दरवाज़ा उसके सामने था। उसकी पुरानी सांकल पर जंग जम चुकी थी, और दरवाज़े की लकड़ी पर अजीब से निशान खुदे हुए थे — वही निशान जो डायरी के पन्नों पर थे।

उसने धीरे-धीरे हाथ बढ़ाया। जैसे ही उंगलियां ठंडी लोहे की सांकल से टकराईं, हवेली के भीतर की हवा भारी हो गई। दीवारों से एक धीमी-सी गूंज उठी — “कुर्बानी…और फिर…सलिम ने दरवाज़ा खोल दिया।

दरवाज़े के उस पार

Khazane ki talash part 4 maut ke darwaze par dastak

दरवाज़ा खुलते ही हवेली में ठंडी हवा का सैलाब उमड़ आया। जैसे सदियों से कैद कोई साँस आज़ाद हुई हो। हवा के साथ हल्की-सी धूल और सूखे पत्तों की सरसराहट भी अंदर चली आई। बाहर घना अंधेरा था, लेकिन उसके बीच एक हल्की-सी, पीली रोशनी दूर कहीं झिलमिला रही थी — जैसे किसी ने मशाल जलाई हो और उसे आधा ढक दिया हो।

सलिम दरवाज़े की चौखट पर खड़ा रहा, उसकी आँखें अंधेरे को चीरने की कोशिश कर रही थीं। तभी… कदमों की आहट सुनाई दी। भारी, धीमी, और हर कदम के साथ ज़मीन जैसे कराह उठती थी। राशिद ने पीछे से फुसफुसाया, “ये इंसान नहीं है…ज़हीर ने बस एक शब्द कहा — “रक्षक।”

अंधेरे से एक आकृति उभरी। उसका कद इतना ऊँचा था कि हवेली का पुराना फाटक उसके सामने छोटा लग रहा था। चेहरा ढका हुआ था — किसी काले, मोटे कपड़े से, जिस पर वही चिन्ह खुदा था जो डायरी में था। हाथ में एक लंबा-सा भाला, जिसकी नोक पर जमी धूल हल्की नीली रोशनी में चमक रही थी।

रक्षक रुका नहीं। वो सीधे दरवाज़े तक आया और भाले की नोक ज़मीन में गाड़ दी। एक अजीब-सी गूंज हवा में भर गई — जैसे लोहे और धरती का मिलन कोई पुराना इशारा दे रहा हो।फिर उसने सलिम की ओर इशारा किया — सीधा, बिना कोई शब्द कहे।

यूट्यूब वीडियो : 10 मिलियन व्यूज़ 

सलिम का दिल तेज़ी से धड़कने लगा, लेकिन उसकी नज़र रक्षक की आँखों में अटक गई। कपड़े की सिलवटों के बीच, हल्की-सी चमक थी — और वो चमक अजीब तरह से जानी-पहचानी लगी। जैसे उसने ये आँखें कहीं पहले देखी हों… शायद बचपन में, शायद किसी पुराने सपने में।

रक्षक ने धीरे-धीरे अपनी गर्दन झुकाई, और फिर भाले की नोक से ज़मीन पर एक घेरा बनाया। घेर के बीच उसने तीन निशान खींचे — पहला, डायरी का चिन्ह। दूसरा, एक कुंजी। तीसरा… एक दिल, जिसमें दरार थी।

ज़हीर आगे बढ़ा, उसकी आवाज़ गहरी थी। “ये तुम्हें एक चुनाव दे रहा है, सलिम। या तो तुम इस घेरे के भीतर कदम रखो और जो भी तुम्हें मिलेगा, उसका सामना करो… या फिर पीछे हट जाओ और ये सफर यहीं खत्म हो जाएगा।”राशिद ने जल्दी से कहा, “ये फँसाने का जाल भी हो सकता है।”

सलिम ने उसकी ओर देखा और हल्की मुस्कान दी, “जाल हो या रास्ता… ये पता करने का एक ही तरीका है।”उसने बिना हिचक एक कदम घेरे के अंदर रखा। उसी पल, भाले की नोक से नीली लौ उठी और घेरा जलने लगा — आग नहीं, बल्कि ठंडी रोशनी की लपटें। हवेली की दीवारें कांपने लगीं, और उसके कानों में किसी अनजानी भाषा में शब्द गूंजे — भारी, गूढ़, लेकिन जैसे सीधे उसकी आत्मा में उतर रहे हों।

रक्षक ने भाला उठाया, और पीछे हट गया… लेकिन जाते-जाते उसने अपने कंधे से काला कपड़ा हटाया। सलिम की आँखें फैल गईं।वो चेहरा… वो किसी अनजान का नहीं था।वो उसके पिता का चेहरा था।

खून का सच

Khazane ki talash part 4 maut ke darwaze par dastak

सलिम जैसे पत्थर का हो गया। सामने खड़ा आदमी — ऊँचा, भारी, रहस्यमय — वही इंसान था जिसे उसने अपने बचपन में तस्वीरों में देखा था, लेकिन जिंदा कभी नहीं। उसके पिता… अहमद रज़ा। वो शख्स जिसे सबने सालों पहले मरा हुआ मान लिया था।

राशिद ने तुरंत पिस्तौल तान दी, “ये कोई चाल है! तुम्हारे पिता सालों पहले—ज़हीर ने उसका हाथ थाम लिया, “राशिद… यहाँ सच गोली से तेज़ है।”सलिम की आवाज़ काँप रही थी, “आप… ज़िंदा हैं? ये सब… क्या है?”

अहमद रज़ा ने भाले को धीरे से ज़मीन पर रखा और अपनी भारी सांसों के बीच कहा, “ज़िंदा… हाँ। लेकिन बेटा, मैंने ये ज़िंदगी नहीं जी… मैंने इसे भुगती है।” उनकी आँखों में गहरी थकान और अपराधबोध की परतें थीं।
“साया-ए-सिलसिला… मैंने ही इसे जगाया था। तुम्हें और तुम्हारी माँ को बचाने के लिए… मुझे रक्षक बनना पड़ा। ये जगह, ये हवेली… ये सिर्फ़ खज़ाने का ठिकाना नहीं, बल्कि उस खून की कसम का कैदखाना है जो मैंने खाई थी।”

सलिम का दिमाग़ उलझने लगा। “आपका मतलब… माँ को पता था?”
अहमद ने गहरी सांस ली, “उन्हें सिर्फ़ इतना पता था कि मुझे छोड़ना ही तुम्हें बचाने का तरीका है। लेकिन उन्होंने ये नहीं जाना… कि साया कभी रुकता नहीं।”

राशिद ने बीच में कहा, “अगर आप रक्षक थे, तो आज क्यों आए हैं?”
अहमद ने सीधा सलिम की आँखों में देखा, “क्योंकि अगला रक्षक… तुम होगे।”

ये सुनते ही सलिम का खून ठंडा पड़ गया। “नहीं… मैं इस जाल का हिस्सा नहीं बनूँगा।”
अहमद के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान आई, “सोचा था, तुम यही कहोगे। लेकिन बेटा, रक्षक बनना चुनाव नहीं… विरासत है। तुम्हारी रगों में वही खून है, वही कसम, और वही बोझ।”

ज़हीर ने सलिम के कंधे पर हाथ रखा, “हर रक्षक को कुर्बानी देनी पड़ती है… और कभी-कभी, वो कुर्बानी अपना अतीत होती है।”

अचानक हवेली के बाहर तेज़ गरज सुनाई दी, जैसे बादल नहीं, बल्कि ज़मीन फट रही हो। अहमद ने आसमान की ओर देखा और कहा, “समय खत्म हो रहा है। साया जाग चुका है… और अब वो सीधे तुम्हारे पीछे है।”
उन्होंने अपनी कमर से एक पुरानी, चाँदी की चाबी निकाली और सलिम के हाथ में रख दी। “ये तुम्हें उस जगह ले जाएगी जहाँ खज़ाना है… और जहाँ साया को हमेशा के लिए रोका जा सकता है। लेकिन याद रखना… अगर तुम ये दरवाज़ा खोलोगे, तो वापस आने का रास्ता नहीं होगा।”

सलिम की उंगलियों ने चाबी को कसकर थाम लिया। उसके भीतर डर और गुस्से की लहरें एक साथ उठ रही थीं।
“अगर ये मेरा विरासत है… तो मैं इसे अपने तरीके से पूरा करूँगा।”

अहमद ने सिर झुकाया, जैसे उसने अपने बेटे को पहली बार रक्षक के रूप में स्वीकार किया हो। लेकिन उनकी आँखों में एक आखिरी, अनकही बात थी — और सलिम समझ नहीं पा रहा था कि वो चेतावनी है… या विदाई।

Part :  1  2  3

Leave a Comment