Khazane ki talash part 5 saya ka aagman
बाहर की गरज अब और गहरी हो गई थी। हवेली की दीवारें थरथराने लगीं, जैसे कोई अदृश्य हाथ उन्हें हिला रहा हो। मोमबत्तियों की लौ फिर से काँप उठी और अचानक एक-एक करके बुझ गई। अंधेरा ऐसा था मानो रोशनी ने खुद से हार मान ली हो।
सलिम ने चाबी अपनी मुट्ठी में कसकर पकड़ रखी थी। ज़हीर और राशिद दोनों दरवाज़े की ओर देख रहे थे, जैसे वहाँ से कुछ भीतर आने वाला हो। अहमद रज़ा ने अपना भाला उठाया और सलिम के सामने खड़े हो गए। उनकी आवाज़ भारी थी, लेकिन उसमें एक अजीब सी जल्दबाज़ी थी — “जब तक मैं रोक रहा हूँ, तुम इस हवेली के भीतर वाले तहखाने में पहुँचो… वही असली दरवाज़ा है।”
अचानक हवा ठंडी हो गई। फर्श पर बर्फ़-सी नमी जमने लगी, और दरवाज़े की दरारों से काला धुआँ अंदर घुसने लगा। वो धुआँ किसी साधारण आग का नहीं था… उसमें आकार बन रहे थे — लम्बी उंगलियां, विकृत चेहरे, और आँखें जो लाल नहीं, बल्कि स्याह चमक रही थीं।
सलिम ने महसूस किया कि उसकी सांस भारी हो रही है, जैसे धुएँ में कोई अदृश्य बोझ मिला हो।ज़हीर ने धीरे से कहा, “साया…”
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अगले ही पल, धुएँ से एक आकृति उभरी — लंबा, बिना चेहरे का, पर उसकी परछाईं हर तरफ़ फैल रही थी। उसकी हर हरकत के साथ हवेली की लकड़ी चरमरा रही थी, जैसे वो डर के मारे सिकुड़ रही हो।
अहमद ने आगे बढ़कर भाले को ज़मीन पर मारा, और नीली रोशनी की एक लहर साया की तरफ़ गई। साया ने उसे रोका, और पूरे कमरे में एक तीखी चीख गूँज उठी — ऐसी आवाज़ जो सीधे कानों में नहीं, बल्कि दिमाग़ के भीतर सुनाई देती थी। राशिद ने अपने कान ढँक लिए, लेकिन आवाज़ रुकी नहीं।“जाओ!” अहमद ने सलिम की ओर मुड़कर चिल्लाया।
सलिम का दिल तेज़ धड़क रहा था। उसने चाबी जेब में डाली और तहखाने की ओर दौड़ पड़ा। पीछे मुड़कर देखा — अहमद और साया के बीच रोशनी और अंधेरे का युद्ध छिड़ चुका था। भाले की हर चोट से नीली लपटें उठ रही थीं, और साया हर बार उन्हें निगलने की कोशिश कर रहा था।
ज़हीर और राशिद उसके पीछे-पीछे थे, लेकिन सीढ़ियों के मुहाने पर पहुँचते ही ज़हीर रुक गया। उसने सलिम का हाथ थामा और धीमे स्वर में कहा, “तुम्हें नीचे अकेले जाना होगा… ये दरवाज़ा सिर्फ़ तुम्हारे खून से खुलेगा।”
सलिम ने उसकी आँखों में देखा — उसमें डर नहीं, बल्कि विश्वास था।उसने गहरी सांस ली, और अँधेरी सीढ़ियों की तरफ़ कदम बढ़ा दिए। ऊपर से साया की गूँज अब और तेज़ हो गई थी, जैसे वो उसके हर कदम को महसूस कर रहा हो।
अंधेरे में उतरते हुए सलिम के कानों में अपने पिता की आखिरी आवाज़ पड़ी —अगर मैं वापस न आऊँ… तो याद रखना, रक्षक सिर्फ़ एक पदवी नहीं… ये एक किस्मत है।”
और फिर, ऊपर से एक ऐसी धमक आई कि पूरा तहखाना काँप उठा।
Khazane ki talash part 5 तहख़ाने का दरवाज़ा
सीढ़ियाँ अनंत लग रही थीं। हर कदम के साथ अंधेरा और गाढ़ा हो रहा था, जैसे रोशनी को नीचे उतरने से मना किया गया हो। हवा में नमी थी, लेकिन उस नमी के साथ एक अजीब सी गंध भी — लोहे और पुराने खून की। सलिम का दिल हर पल तेज़ धड़क रहा था, और उसकी हथेली में चाबी गर्म होने लगी थी, मानो उसे रास्ता दिखा रही हो।
आख़िरकार, सीढ़ियाँ खत्म हुईं। सामने एक विशाल पत्थर का दरवाज़ा था, जिस पर वही तीन निशान खुदे हुए थे — कुंजी, दिल और दरार। दरवाज़े के आस-पास काई जम चुकी थी, लेकिन बीच में मौजूद चिन्ह ऐसे चमक रहे थे मानो अभी-अभी खुदे हों।
सलिम ने चाबी निकाली और दरवाज़े के बीच बने गोल खाने में लगाई। जैसे ही उसने उसे घुमाया, दरवाज़े पर की दरारों से नीली लपटें निकलने लगीं। पत्थर हिला, ज़मीन काँपी और दरवाज़ा धीरे-धीरे खुलने लगा।
अंदर का कमरा विशाल था। दीवारों पर मशालें अपने-आप जल उठीं, और बीच में एक बड़ा सा संदूक रखा था। लेकिन संदूक साधारण नहीं था — उसके चारों कोनों पर जंजीरों में काले धुएँ जैसी आकृतियाँ बंधी थीं, जो तड़प रही थीं। वो शायद उसी “साया” के टुकड़े थे जिन्हें सदियों पहले कैद किया गया था।
सलिम पास गया, और तभी उसके कानों में फुसफुसाहट गूँजी —हमें आज़ाद कर दो… और तुम्हें वो मिलेगा जिसकी तुम्हें तलाश है।”
उसने कदम पीछे खींच लिए। उसकी आँखों में डर और जिज्ञासा दोनों थे। तभी ऊपर से धमाकों की गूंज सुनाई दी — शायद उसके पिता अब भी साया से लड़ रहे थे। राशिद और ज़हीर उसके पीछे आ गए थे। राशिद ने संदूक को देखते ही कहा, “यही है… यही खज़ाना है! खोल दो इसे!”
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लेकिन ज़हीर ने सख़्त आवाज़ में कहा, “नहीं! ये खज़ाना नहीं… ये फरेब है। असली खज़ाना उस साया को हमेशा के लिए कैद करने की शक्ति है।”
सलिम की आँखें संदूक पर टिक गईं। अचानक उसे याद आया — डायरी में लिखा आखिरी वाक्य:खज़ाना सोना या जवाहरात नहीं… बल्कि वो वक़्त है जो अंधेरे को रोक सके।”
तभी जंजीरें और ज़ोर से हिलने लगीं, और धुएँ से बनी आकृतियाँ एक-एक कर सलिम की ओर झपटने लगीं। उसने डर के मारे चाबी कसकर पकड़ ली। उसी पल चाबी से तेज़ नीली रोशनी फूटी और कमरे में फैल गई। धुएँ की आकृतियाँ पीछे हट गईं, लेकिन उनकी चीख़ें अब और तेज़ हो गईं।
सलिम समझ गया — चाबी सिर्फ़ खोलने के लिए नहीं, बल्कि बंद करने के लिए भी बनी थी।उसके सामने अब चुनाव था —या तो संदूक खोले और अनजाने ख़ज़ाने को पाए, या फिर इसे हमेशा के लिए बंद कर दे और साया के कहर को रोके।
उसके दिल की धड़कन और तेज़ हो गई। ऊपर से आती अपने पिता की चीख़ उसे और असहज कर रही थी।और तभी… संदूक के भीतर से एक आवाज़ आई —अगर तू मुझे आज़ाद करेगा, तो तेरे पिता ज़िंदा रहेंगे…सलिम की सांस रुक गई।
साया का लालच देना
सलिम के कानों में गूँजती वो आवाज़ उसकी रगों में खून जमा देने वाली थी — “अगर तू मुझे आज़ाद करेगा, तो तेरे पिता ज़िंदा रहेंगे…”। उसका दिल बुरी तरह काँप रहा था। माथे पर पसीने की बूंदें चमक रही थीं, जबकि तहख़ाने की हवा बर्फ़ जैसी ठंडी थी। उसने काँपते होंठों से धीरे से कहा, “तुम… मेरे पिता को कैसे जानते हो?”
संदूक से निकलती हुई परछाइयाँ हँसी — एक खोखली, खौफ़नाक हँसी। “मैं सब जानता हूँ, सलिम। मैंने तेरे पिता को घुटनों पर ला दिया है। अभी वो ऊपर मेरी गिरफ्त में हैं। अगर तू चाबी को मेरी कैद से हटा देगा, तो मैं उन्हें छोड़ दूँगा। वरना…” आवाज़ अचानक भारी और गहरी हो गई, “…तू उनका आख़िरी चिल्लाना सुनेगा।”
सलिम के कदम लड़खड़ा गए। उसकी आँखों के सामने पिता का चेहरा घूम गया — मज़बूत, साहसी और हमेशा हिम्मत देने वाला। लेकिन क्या सचमुच उसके पिता ज़िंदा थे? या यह सब छलावा था? उसकी मुट्ठी में कसकर पकड़ी चाबी अब और भी गर्म हो चुकी थी, मानो उसमें खुद कोई धड़कता हुआ दिल हो।
वो आगे बढ़ा, संदूक के बिल्कुल पास। लोहे की मोटी जंजीरें तड़प रही थीं, और उनमें बंधी धुएँ की परछाइयाँ उसकी आँखों में घुसकर उसे डरा रही थीं। “खोल… खोल… हमें आज़ाद कर…” चारों तरफ़ गूँजने लगीं। सलिम ने अपने कान दोनों हाथों से ढक लिए लेकिन आवाज़ उसके दिमाग़ के अंदर उतर चुकी थी।
अचानक उसे डायरी का आख़िरी पन्ना याद आया। उसमें लिखा था — “साया हमेशा तुम्हारी सबसे बड़ी कमजोरी को निशाना बनाएगा। धोखे में मत आना। असली जीत उसी में है जब तुम अपनी चाहत को कुर्बान कर सको।”
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सलिम की आँखें भर आईं। उसकी सबसे बड़ी चाहत यही थी कि उसके पिता उसे छोड़कर कभी न जाएँ। लेकिन अगर यह सिर्फ़ साया का छलावा हो तो? अगर उसने संदूक खोल दिया, तो शायद अंधेरा हमेशा के लिए आज़ाद हो जाएगा।
उसने गहरी साँस ली और संदूक पर हाथ रख दिया। उसी पल नीली आग की लपटें फूट पड़ीं। आवाज़ ने गुर्राकर कहा, “सोच ले सलिम! तेरे पास आख़िरी मौका है। या मुझे खोलकर अपने पिता को बचा, या हमेशा के लिए उन्हें खो दे।”
सलिम की आँखों से आँसू बह निकले। उसके दिल में तूफ़ान था। सामने साया का प्रलोभन और पीछे अपने पिता की चीख़। लेकिन तभी उसने अपने पिता के कहे शब्द याद किए — “बेटा, सच्चा इंसान वही है जो अपने डर से ऊपर उठकर दूसरों की रक्षा करे।”
उसका चेहरा बदल गया। अब डर की जगह दृढ़ निश्चय था। उसने काँपते हाथ से चाबी को संदूक में लगाया, लेकिन घुमाया नहीं। उसकी आँखें सीधे धुएँ की आकृतियों पर थीं। “अगर मेरे पिता सचमुच ज़िंदा हैं, तो मैं उन्हें खुद ढूँढ लूँगा। लेकिन तुझे आज़ाद करके मैं पूरी दुनिया को अंधेरे में नहीं धकेलूँगा।”
ये कहते ही सलिम ने पूरी ताक़त से चाबी उल्टी घुमा दी। तभी एक तेज़ धमाका हुआ, और नीली रोशनी पूरे तहख़ाने में फैल गई। जंजीरें चमकने लगीं, धुएँ की परछाइयाँ चीख़ती हुई सिकुड़कर संदूक में समा गईं। आवाज़ ग़ुस्से से गरजी — “नादान लड़के! तूने अपने पिता को मार दिया…!”
सलिम की आँखें भर आईं, लेकिन उसके होंठ काँपते हुए बोले — “अगर उनकी कुर्बानी से दुनिया बच सकती है… तो यही असली ख़ज़ाना है।”कमरे की मशालें एक-एक कर बुझ गईं। अंधेरे में सिर्फ़ चाबी की नीली चमक रह गई… और सलिम का अकेलापन।
क़ुर्बानी का सच
चारों तरफ़ गहरा सन्नाटा था। मशालों की लौ बुझ चुकी थी, और तहख़ाना अब किसी क़ब्र जैसा लग रहा था। बस चाबी से निकलती हल्की नीली चमक ही वहाँ मौजूद थी, जो सलिम के चेहरे को उजागर कर रही थी। उसका दिल अब भी जोर-जोर से धड़क रहा था, लेकिन उसकी आँखों में एक अजीब-सी ठहराव थी।
“अब… अब क्या होगा?” उसने खुद से बुदबुदाया।
संदूक की जंजीरें पूरी तरह शांत हो चुकी थीं, जैसे किसी गहरी नींद में डूब गई हों। अचानक, तहख़ाने की दीवारों पर खुदे चिन्ह चमकने लगे। कुंजी, दिल और दरार — तीनों निशान नीली रौशनी से जगमगाने लगे। दीवारों में कंपन हुआ, और फिर एक धीमी-सी आवाज़ गूँजी:
“सच की राह चुनने वाला ही असली वारिस होता है।”सलिम ने चौक कर चारों तरफ़ देखा, मगर कोई नहीं था। यह आवाज़ मानो खुद तहख़ाने की आत्मा से निकल रही थी।
तभी चाबी की गर्मी कम होने लगी और उस पर एक नया निशान उभर आया — एक वृत्त जिसके बीचोंबीच एक जलती मशाल थी। सलिम ने समझा कि यह शायद अगला रास्ता दिखाने वाला संकेत है।
लेकिन तभी उसके कानों में एक हल्की कराह गूँजी। वह चौंककर ऊपर की ओर देखने लगा। यह आवाज़ किसी जिंदा इंसान की थी। उसका दिल जोर से धड़कने लगा — “क्या सचमुच अब्बा…”
वह सीढ़ियों की ओर भागा। हर कदम के साथ नीली रौशनी उसके आगे-आगे बढ़ती रही, जैसे रास्ता दिखा रही हो। ऊपर पहुँचते ही उसने देखा कि तहख़ाने का दरवाज़ा आधा खुला हुआ है, और बाहर से धीमी रोशनी भीतर आ रही है।
सलिम ने साँस थामकर दरवाज़े को खोला। बाहर का नज़ारा देखकर उसकी आँखें फैल गईं।जमीन पर उसके पिता पड़े थे — थके, घायल और ख़ून से लथपथ, मगर ज़िंदा। उनकी साँसें भारी थीं, लेकिन उनका चेहरा सलिम को देखते ही चमक उठा।
“सलिम…” उन्होंने धीमी आवाज़ में कहा, “तू… तू सही फ़ैसला करके आया है।”
सलिम दौड़कर उनके पास बैठ गया। आँसू उसकी आँखों से बह निकले। उसने काँपते हुए पूछा, “लेकिन… साया ने तो कहा था कि अगर मैंने संदूक बंद किया तो आप मर जाएँगे…”
पिता ने हल्की मुस्कान दी। “बेटा, अंधेरा हमेशा धोखा देता है। वो तेरी कमजोरी से खेलना चाहता था। लेकिन तूने हिम्मत दिखाई… और वही हमारी सबसे बड़ी जीत है।”
सलिम ने उन्हें सहारा देकर उठाने की कोशिश की। तभी आसमान गरजा और दूर से गड़गड़ाहट की आवाज़ आई। शायद तहख़ाने का सील होना पूरी घाटी को हिला रहा था।
पिता ने काँपते हुए कहा, “जल्दी चल… ये जगह अब ज़्यादा देर तक नहीं टिकेगी।”
सलिम ने उन्हें कंधे का सहारा दिया और दोनों मिलकर अंधेरी गुफ़ा से बाहर निकलने लगे। हर कदम के साथ पीछे से गूँजती हुई आवाज़ सुनाई देती — “ये अंत नहीं है… मैं फिर लौटूँगा…”
सलिम ने आँखें बंद कर लीं और चाबी को सीने से लगा लिया। अब उसे समझ आ चुका था — असली खज़ाना सोना या जवाहरात नहीं, बल्कि यह ताक़त थी कि इंसान अंधेरे के प्रलोभन में आए बिना सच का रास्ता चुन सके।
गुफ़ा से बाहर झाँकती पहली सुबह की किरणें उनकी थकी आँखों पर पड़ीं। लंबे अंधेरे के बाद यह रोशनी मानो नए जीवन का वादा कर रही थी।